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________________ ७९ ८० अहिंसा इन छोटे जंतुओं को मारना, वह द्रव्यहिंसा कहलाती है। और किसी को मानसिक दख देना, किसी पर क्रोध करना, गुस्सा होना, वह सब हिंसक भाव कहलाता है, भावङ्क्षहसा कहलाता है। लोग चाहे जितनी अङ्क्षहसा पाले पर अहिंसा कुछ इतनी आसान नहीं कि जल्दी पाली जा सके। और दरअसल हिंसा ही यह क्रोध-मान-माया-लोभ है। यह तो जीवजंतु को मारते हैं, भैंसे मारते हैं, भैंसें मारते हैं, वे तो समझो कि द्रव्यहिंसा है। वह तो कुदरत के लिखे अनुसार ही चला करता है। इसमें किसी का चले ऐसा नहीं। इसलिए भगवान ने तो क्या कहा था कि पहले, खुद को कषाय नहीं हो ऐसा करना। क्योंकि ये कषाय, वे सबसे बड़ी हिंसा हैं। वह आत्महिंसा कहलाती है, भावहिंसा कहलाती है। द्रव्यहिंसा हो जाए तो भले हो, परन्तु भावहिंसा नहीं होने देना। तब ये लोग द्रव्यहिंसा रोकते हैं, पर भावहिंसा चालू रहती है। इसलिए किसी ने निश्चित किया हो कि 'मुझे नहीं ही मारने', तो उसके भाग्य में कोई मरने नहीं आता। अब वैसे तो वापिस उसने स्थूलहिंसा बंद की कि मुझे किसी जीव को मारना नहीं है। पर बुद्धि से मारना ऐसा निश्चित किया हो तब तो वापिस उसका बाज़ार खुल्ला होता है। तब वहाँ आकर 'कीट-पतंगे' टकराते रहते हैं और वह भी हिंसा ही है न! अहिंसा फिर जहाँ पक्षपात है वहाँ हिंसा है। पक्षपात यानी कि हम अलग और आप अलग, वहाँ हिंसा है। ऐसे अहिंसा का तमगा लगाता है कि हम अहिंसक प्रजा हैं। हम अहिंसा में ही माननेवाले हैं, पर भाई, पहली हिंसा, वह पक्षपात है। यदि इतना शब्द समझे तो भी बहुत हो गया। इसलिए वीतरागों की बात समझने की ज़रूरत है। निज का भावमरण प्रतिक्षण सारे जगत् के लोगों को रौद्रध्यान और आर्तध्यान तो अपने आप होता ही रहता है। उसके लिए तो कुछ करना ही नहीं है। इसलिए इस जगत् में सबसे बड़ी हिंसा कौन-सी? आर्तध्यान और रौद्रध्यान! क्योंकि वह आत्महिंसा कहलाती है। वो जीवों की हिंसा तो पदगल हिंसा कहलाती है और यह आत्महिंसा कहलाती है। तो कौन-सी हिंसा अच्छी? प्रश्नकर्ता : हिंसा तो कोई भी अच्छी नहीं है। परन्तु आत्महिंसा वह बड़ी कहलाती है। दादाश्री : फिर ये लोग सारे पुद्गलहिंसा तो बहुत पालते हैं। पर आत्महिंसा तो हुआ ही करती है। आत्महिंसा को शास्त्रकारों ने भावहिंसा लिखा है। अब भावहिंसा इस ज्ञान के बाद आपको बंद हो जाती है। तो अंदर कैसी शांति रहती है न! प्रश्नकर्ता : कृपालुदेव ने इस भावहिंसा को भावमरण कहा है न? कृपालुदेव का वाक्य है न, 'क्षण क्षण भयंकर भावमरणे कां अहो राची रह्यो' उसमें समय-समय का भावमरण होता है? दादाश्री : हाँ प्रत्येक क्षण भयंकर भावमरण यानी क्या कहना चाहते हैं? जब कि प्रतिक्षण भावमरण नहीं होता, हर एक समय भयंकर भावमरण होता है। पर यह तो स्थूल रूप से पर लिखा हुआ है। जब कि प्रत्येक समय भावमरण ही हो रहा है। भावमरण मतलब क्या कि 'मैं चंदलाल हूँ' वही भावमरण है। जो अवस्था उत्पन्न हुई वह अवस्था 'मुझे' हुई ऐसा मानना मतलब भावमरण हुआ। इन सब लोगों की रमणता भावमरण में इसलिए किसी जीव को त्रास नहीं हो, किसी जीव को किंचित् मात्र दुख नहीं हो, किसी जीव की ज़रा-सी भी हिंसा हो, वैसा नहीं होना चाहिए। और किसी मनुष्य के लिए एक ज़रा-सा भी खराब अभिप्राय नहीं होना चाहिए। दुश्मन के लिए भी अभिप्राय बदला. तो वह सबसे बडी हिंसा है। एक बकरा मारो उसके सामने तो यह बड़ी हिंसा है। घर के लोगों के साथ चिढ़ना, वह बकरा मारो उससे भी बड़ी हिंसा है। क्योंकि चिढ़ना वह आत्मघात है। और बकरे का मरना वह अलग चीज़ है। और लोगों की निंदा करनी, वह मारने के बराबर है। इसलिए निंदा में तो पड़ना ही मत। बिलकुल भी लोगों की निंदा कभी करनी नहीं। वह हिंसा ही है।
SR No.009573
Book TitleAhimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages59
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size36 KB
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