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________________ ७७ अहिंसा अहिंसा मन-वचन-काया से जो जगत् में दिखता है, वह द्रव्यहिंसा है। बचो भावहिंसा से प्रथम इसलिए भगवान ने अङ्क्षहसा अलग प्रकार की कही कि फर्स्ट अहिंसा कौन-सी? आत्महत्या नहीं हो। पहला अंदर से भावहिंसा नहीं हो उसे देखने को कहा है, उसके बदले कहाँ से कहाँ चला गया। ये तो भावहिंसा सब हुआ ही करती है, निरंतर भावहिंसा हुआ करती है। इसलिए शुरूआत में भावहिंसा बंद करनी है और द्रव्यहिंसा तो किसी के हाथ में ही नहीं है। फिर भी ऐसा बोलना नहीं चाहिए। ऐसा बोलोगे तो जोखिम आएगा। बाहर सबके सामने नहीं बोलना है। समझदार व्यक्ति को ही कहा जा सकता है। इसलिए वीतरागों ने सब खुला नहीं किया। बाकी द्रव्यहिंसा किसी के हाथ में ही नहीं, किसी जीव के ताबे में है ही नहीं। पर यदि ऐसा कहा जाए न तो लोग आनेवाला भव बिगाड़ेंगे। क्योंकि भाव किए बिना रहते नहीं न! कि 'ऐसा हाथ में है ही नहीं, अब तो मारने में दोष ही नहीं न!' वह भावहिंसा ही बंद करनी है। मतलब वीतराग कितने समझदार ! एक अक्षर भी इस बारे में लिखा है? देखो, इतना भी लीकेज होने दिया! तीर्थंकर कितने समझदार पुरुष थे, जहाँ पैर रखें वहाँ तीर्थ ! फिर भी द्रव्यहिंसा बंद करें, तभी भावहिंसा रखी जा सकती है ऐसा है वापिस। फिर भी भावहिंसा की मुख्य क़ीमत है। इसलिए जीवों की 'हिंसा-अहिंसा' में भगवान ने पड़ने को नहीं कहा है, इस तरह। भगवान कहते हैं, 'तू भावहिंसा मत करना। फिर तू अहिंसक माना जाएगा।' इतना शब्द भगवान ने कहा है। ऐसे होती है भाव अहिंसा इसलिए सबसे बड़ी हिंसा भगवान ने कौन-सी कही? कि 'इस व्यक्ति ने किसी जीव को मार डाला, उसे हम हिंसा नहीं कहते पर इस व्यक्ति ने जीव को मारने का भाव किया, इसलिए उसे हम हिंसा कहते हैं।' बोलो, अब लोग क्या समझते हैं? इसने जीव को मार डाला, इसलिए इसे ही पकड़ो।' तब कोई कहेगा, 'इसने जीवों को मारा तो नहीं न?' मारे नहीं हो उसकी भी आपत्ति नहीं है। परन्तु भाव किया न उसने, कि जीव मारने चाहिए, इसलिए वही गुनहगार है। और जीव को तो 'व्यवस्थित' मारता है। मारनेवाला तो खाली अहंकार करता है कि मैंने मारा। और यह भाव करता है, वह तो खुद मारता है। आप कहो कि जीवों को बचाने जैसा है। फिर बचे या नहीं बचे, उसके जिम्मेदार आप नहीं हैं। आप कहो कि 'इन जीवों को बचाने जैसा है', आपको इतना ही करना है। फिर हिंसा हो गई, उसके जिम्मेदार आप नहीं! हिंसा हुई उसका पछतावा, उसका प्रतिक्रमण करना उससे जिम्मेदारी सब खतम हो गई। अब इतनी अधिक सूक्ष्म बातें किस तरह मनुष्य को समझ में आए? उसकी बिसात क्या? दर्शन कहाँ से इतना अधिक लाए? ये मेरी बातें सारी वहाँ ले जाए तो उल्टा समझे वापिस । पब्लिक में ऐसा हम नहीं कहते। पब्लिक में कहा नहीं जा सकता न! आपको समझ में आता है? भावअहिंसा यानी मुझे किसी भी जीव को मारना है, ऐसा भाव कभी भी नहीं होना चाहिए और किसी भी जीव को मुझे दुख देना है, ऐसा भाव उत्पन्न नहीं होना चाहिए। मन-वचन-काया से किसी जीव को किंचित् मात्र दुख न हो, ऐसी भावना ही सिर्फ करनी है। क्रिया नहीं भावना ही करनी है। क्रिया में तो तू किस तरह बचानेवाला है? श्वासोश्वास में कितने ही लाखों जीव मर जाते हैं और यहाँ जीवों की टोलियाँ टकराती हैं वे टकराने से ही मर जाते हैं। क्योंकि हम तो उनके लिए बड़े-बड़े पत्थरों जैसे दिखते हैं। उन्हें ऐसा कि यह पत्थर टकराया। सबसे बड़ी आत्महिंसा, कषाय जहाँ क्रोध-मान-माया-लोभ हैं, वह आत्महिंसा है। और दूसरी जीवों की हिंसा है। भावहिंसा का अर्थ क्या? तेरी खुद की जो हिंसा होती है, ये क्रोध-मान-माया-लोभ वे तुझे खुद को बंधन करवाते हैं, तो खुद पर दया खा। पहले खुद की भावअहिंसा और फिर दूसरों की भावअहिंसा कहा है।
SR No.009573
Book TitleAhimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages59
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size36 KB
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