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________________ प्रथमः सर्गः पुरः पुरोभागे प्रवालविद्रुमैः । 'अथ विद्रुमः पुंसि प्रवालं पुनपुंसकम् इत्यमरः । पूरितार्धयेव स्थितया अच्छस्फटिकाक्षमालया स्वच्छस्फटिकानां मालया। जपमालयेत्यर्थः । 'अच्छो भल्लू के स्फटिकेऽमलेऽच्छाभिमुखेऽव्ययम्' इति हेमचन्द्रः। तथा प्रसिद्ध स्फटिकग्रहणादृषेर्मोक्षार्थित्वं व्यज्यते । 'स्फटिको मोक्षदः परम्' इति मोक्षार्थिनां स्फटिकाक्षमामालाभिधानात् । विभान्तं भासमानम् । भातेः शतृप्र. त्ययः । अत्र नखांशुभिन्नयेति स्वगुणत्यागेनान्य गुणस्वीकारलक्षणस्तद्गुणालङ्कार उक्तः । तद्गुणः स्वगुणत्यागात्' इति ।। ६ ।। ___अन्वयः-अजस्रम् आस्फालित वल्लकीगुणक्षतोज्ज्वलाांगुष्ठनखांशुभिन्नया पुरः प्रवालैः पूरितार्धया इव अच्छस्फटिकाक्षमालया विभान्तम् ॥ १॥ हिन्दी अनुवाद-वीणा के तारों को निरन्तर ताडित करते रहने के कारण घर्षित हुए उज्ज्वल अंगूठे के नख की कान्ति से मिश्रित, रक्तिम आभा से, अग्रिम अर्धभाग को मानों प्रवालों से पूरित करने वाली निर्मल स्फटिक की जपमाला से शोभायमान (आकाश से भूतल की ओर आनेवाले उस व्यक्ति को श्रीकृष्ण ने नारद समझा ) ( निरन्तर वीणा को बजाते रहने से वीणा के तारों से अंगूठा घिसकर कुछ रक्तिम हो गया है। और निसर्गतः निर्मल नख की कान्ति भी उससे रक्तिम होकर स्फटिक माला पर प्रतिबिम्बित हो रही है, ( स्फटिक की माला फेरते समय उसपर अंगूठा रखने से उसकी कान्ति स्फटिक के अगले भाग में प्रतिबिम्बत हुआ करती थी) इससे ऐसा मालूम होता था कि मानों स्फटिक के आधे भाग में लाल-मूङ्गा जड़ा हुआ है । उस स्फटिक की माला से महर्षि नारद शोभायमान हो रहे थे । ९ ।। विशेष-स्फटिक की जपमाला ग्रहण करने से नारद मुनि का मोक्षार्थिव अभिव्यक्त होता है। क्यों कि मोक्षार्थियों के लिए स्फटिक माला का विधान है'स्फटिको मोक्षदः परम् ।' प्रसङ्ग-भगवान् कृष्ण ने महती नामक वीणा का (जिसमें ग्राम और मूर्च्छनाएँ ध्वनित हो रही हैं ) पुनः पुनः अवलोकन करने वाले नारदमुनि को देखा । रणद्भिराघट्टनया नभस्वतः पृथग्विभिन्नश्रुतिमण्डलैः स्वरैः। म्फुटीभवद्रामविशेषमूर्छनामवेक्षमाणं महती मुहुर्मुहुः॥१०॥ रणद्भिरिति ॥ पुनः । नभस्वतो वायोराघट्टनया आघातेन पृथगसङ्कीर्णरद्भिर्वनद्भिः। अनुरणनोत्पद्यमान रित्यर्थः । 'श्रुत्यारब्धमनुरणनं स्वरः' इति लक्षणात् । तदुक्तं रत्नाकरे 'श्रुत्यनन्तरभावी यः स्निग्धोऽनुरणनात्मकः । स्वतो रञ्जयति श्रोतुश्चित्तं स स्वर उच्यते' । ( सं. र. १।३।२४-२५) इति । श्रुति म स्वरारम्भकावयवः शब्दविशेषः । तदुक्तम् --
SR No.009569
Book TitleShishupal vadha Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajanan Shastri Musalgavkar
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size63 MB
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