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________________ [ 51 ] यज्ञ विघ्नबाधाओं से रहित तथा निर्दोष सम्पन्न होगा । उस निर्दोष यज्ञ करने की आकांक्षा से सभी साधनों को एकत्र करके मैं आपकी प्रतीक्षा कर रहा था । अपने सभी भाइयों समेत मैं आपकी आज्ञा के अधीन हूँ । आप मुझे मेरे कर्तव्य की शिक्षा दीजिये । इत्यादि बातों को सुनकर भगवान् ने कहा – “हे राजन् ! मैं आपके अत्यन्त दुष्कर आदेशों का भी पालन करूंगा । आप मुझे धनञ्जय से तनिक भी भिन्न न मानें । जो राजा आपके इस राजसूय यज्ञ में भृत्य के समान कार्य न करेगा उसके शिर को मेरा यह सुदर्शन चक्र शरीर से पृथक् कर देगा ।" उनके ऐसा कहने पर युधिष्ठिर प्रसन्न चित्त से यज्ञ करने के लिए प्रवृत्त हो गये । तत्पश्चात् मीमांसा शास्त्र के ज्ञाता पुरोहित अग्नि में आहुतियाँ छोड़ने लगे । सामवेद ब्राह्मण स्पष्ट स्वर से सामवेद का गान करने लगें । द्रौपदी देवी हवनीय पदार्थों का घूम-घूम कर निरीक्षण कर रही थी । हवन करने के साथ ही उठा हुआ धूम दिशामण्डल को धूमिल करने लगा । अमृत का भोजन करने वाले देवगण मन्त्रोच्चारण के साथ अग्नि में छोड़े गये हविष्य रूप अमृत का भोजन करने के लिए त्वरा करने लगे । इस प्रकार उस राजसूय यज्ञ में जितनी भी क्रियाएँ सम्पन्न हुई, किसी में भी कोई दोष नहीं हुआ तथा यज्ञ की समस्त सामग्रियाँ पूरी पड़ गयीं । तदनन्तर एक ओर युधिष्ठिर ब्राह्मणों के समीप जाकर उन्हें राजसूय यज्ञ के उपयुक्त उचित दक्षिणाएँ प्रदान कर रहे थे दूसरी ओर राजा लोग युधिष्ठिर को अमूल्य रत्नों की भेट करने के लिये यज्ञमण्डप से बाहर प्रतीक्षा कर रहे थे । एक ही राजा ने भेंट रूप में जो धन दिया था, वहीं उस राजसूय यज्ञ को सविधि सम्पन्न करने में पर्याप्त था, किन्तु त्यागी राजा युधिष्ठिर समस्त राजाओं द्वारा प्राप्त धन को ब्राह्मणों को दान रूप में दे रहे थे । वे याचकों को अनादर की दृष्टि से नहीं देखते थे । उस यज्ञ के लोग मधर आदि छः हों रसों का विधिवत आस्वादन कर रहे थे । इस प्रकार विस्तारपूर्वक होने वाले उस राजसूय यज्ञ की समाप्ति के अनन्तर राजा युधिष्ठिर ने धर्मशास्त्र का विचार करते हुए अर्ध्य-दान के सम्बन्ध में भीष्म से पूछा, तब शन्तनु के पुत्र भीष्म ने उस सभा के अनुकूल यह उत्तर दिया । भीष्म ने कहा- हे राजन् ! तुम करणीय वस्तुओं में क्या नहीं जानते ? फिर भी गुरुजनों से पूछना उचित ही है । अतः सुनो “इस समय ब्राह्मणों और राजाओं के इस संपूर्ण समागम में भी मुझे तो सम्पूर्ण गुणों के आगार, असुरों के विनाशक, भगवान् श्रीकृष्ण ही एक मात्र पूजा के अधिकारी दिखाई पड़ते हैं ।" हे युधिष्ठिर ! तुम धन्य हो, जिसके सम्मुख भगवान् स्वयं आकर उपस्थित हुए हैं । यज्ञकर्ता इन्हीं की विधिपूर्वक पूजा करते हैं । अतः परमपूज्य भगवान् श्री कृष्ण की विधिवत् पूजा करके जब तक यह संसार रहेगा तब तक के लिये साधुवाद प्राप्त करो ।" राजायुधिष्ठिर ने भीष्म पितामह की बातों को सुनकर समस्त राजाओं के सम्मुख भगवान् श्री कृष्ण की विधिवत् पूजा की, और राजसूय-यज्ञ इस प्रकार सम्पन्न किया ।
SR No.009569
Book TitleShishupal vadha Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajanan Shastri Musalgavkar
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size63 MB
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