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________________ [ 40 ] झरनों के ऊपर की ओर उछलते हुए जल-बिन्दुओं से देवांगनाओं के शरीर को शीतल करता है । स्फटिक के तट की किरणों से श्वेतजलवाली तथा इन्द्रनील मणियों की आभा से नीलवर्णवाली यहाँ की नदियाँ, यमुना के नीले जल से युक्त गंगा की शोभा को धारण करती हैं (४। २६ ) । एक ओर स्वर्णमयी तथा दूसरी ओर रजतमयी दीवाल से यह पर्वत भस्मोद्धूलित एव नेत्र से अग्निकण निकालते हुए शिवजी की तरह परिलक्षित हो रहा है । दारुक कहता है- देखिए, यहाँ विविध प्रकार के पुष्पों पर भ्रमर सदा मँडराते रहते हैं । चितकबरे रोमवाले मृग विचरण करते हुए दिखाई देते हैं । कमलों से भरे हुए जलाशय यहाँ हैं । कदम्ब के पुष्पों पर पक्षिगण कलरव करते रहते हैं । यहीं पर तमाल और ताल के अनेक वृक्ष हैं । सघन वंश-वृक्षों में चमरी गायें प्रायः घूमती हुई दिखाई देती हैं । यहीं पर अश्व जैसी मुखाकृतिवाले किनर विचरण करते रहते हैं । विशेष आश्चर्यपूर्ण तथ्य की ओर श्रीकृष्ण का ध्यान आकर्षित करते हुए दारुक श्रीकृष्ण से कहता है कि इस पर्वत पर चन्द्रकिरणें, विविधप्रकार की रत्नकिरणों से मिश्रित होकर सहस्रों संख्यावाली हो जाने पर - 'यह निश्चित रूप से सूर्य है' - ऐसा विश्वास कर कमलिनियाँ रात्रि में ही विकसित कमलों वाली हो जाती हैं । रात्रि में औषधियाँ यहाँ चमकती हैं पुष्पित कदम्ब को दोलायमान करती हुई मन्द वायु सदा बहती रहती हैं । यहाँ बहुमूल्य रत्नों की खाने हैं । जहाँ एक ओर यह पर्वतीय प्रदेश भोगभूमि है, वहीं दूसरी ओर समाधि लगाए हुए सिद्ध पुरुषों का निवास स्थान होने से यह सिद्ध भूमि भी है । देखिए, परमश्रेष्ठ यह रैवतक पर्वत, ऊपर उठे हुए नीलवर्ण के मेघों द्वारा मानों स्वयं उठकर आपका स्वागत करने के लिए अभ्युत्थान कर रहा है । १ उदयति विततोर्ध्वरश्मिरज्जावहिमरुचौ हिमधाम्नि याति चास्तम् । बहति गिरिरयं विलम्किघण्टाद्वयपरिवारितवारणेन्द्रलीलाम् ।। ४। २० पञ्चमसर्ग (सेना के रैवतक पर्वत पर पड़ाव डालने का वर्णन) सूतपुत्र दारूक की रैवतक-पर्वत के मनोरम प्राकृतिक सौन्दर्य की बातें सुनने के अनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण ने रैवतक पर्वत पर कुछ समय तक रूककर निवास करने की इच्छा की । तदनुसार श्रीकृष्ण की विशाल सेना रैवतक पर्वत की ओर प्रस्थान करने लगी । सेना के हाथी, ऊँटे, घोड़े द्रुतगति से दौड़ रहे थे । परिणामत: रैवतक पर्वत के समीपवर्ती प्रान्तों में दौड़ते हुए रथचक्रों से उड़ी हुई धूलि चारों ओर फैल रही थी । मार्ग में चलते हुए हाथी और ऊँट एक दूसरे से डर रहे थे । लोग अपने पैरों को आगे बढाते हुए द्रुतगति से चलने वाले घोड़ों को देख रहे थे । थके हुए सैनिक वृक्षों की विस्तृत छाया में बैठने लगे थे । श्रीकृष्ण के अनुचर नृपति-गण पर्वत पर पहुँच कर गुफाओं को अपना निवास-स्थल बना रहे थे । कुछ नृपतियों ने श्रीकृष्ण के शिविर के समीप ही अपने शिविरों को स्थापित कर लिया था । इस प्रकार ऊँचे ऊँचे लाल रंग के तम्बुओं से सुशोभित तथा काले-काले हाथियों के समूहों से
SR No.009569
Book TitleShishupal vadha Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajanan Shastri Musalgavkar
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size63 MB
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