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________________ [ 32 ] भारत, रामायाण, मोक्षोपाय, आत्मज्ञान, धातुवाद, रत्नपरीक्षा, वैद्यक, ज्योतिष, धनुर्वेद, गजतुरग, पुरुषलक्षण, द्यूत, इन्द्रवास तथा विविध विषयों में उक्त विद्या-ज्ञान का उल्लेख उपलक्षण के रूप में है, क्योंकि कवि ज्ञान की इयत्ता निर्धारित ही नहीं की जा सकती । ऐसे प्रतिभाशाली एवं व्युत्पन्न कवि के चित्त-गंगा में स्नान करने के पश्चात् उसके द्वारा निर्मित कविता की कान्ति नई शोभा के रूप में निखरती है, मानों “प्रत्यग्रमज्जन विशेषविविक्तकान्तिः" कोई अनुरागवती प्रिया हो । कवि के उल्लास, मुखर चित्त में जो विभित्र शास्त्रों के अभ्यास जनित संस्कार होता है, वह इस शोभा में नवीन आभरणों की योजना करता है । इसलिए संस्कृत काव्य पाठक को कविता के कल्पलोक में विभिन्न शास्त्रों की सुचितित विचारधारा के दर्शन होते हैं । ये विभिन्न शास्त्रीय विचार काव्य का मुख्य प्रतिपाद्य नहीं होते, परन्तु उनकी विवेचना के बिना संस्कृत काव्य की शोभा ठीक-ठीक हृदयंगम भी नहीं हो पाती । ___ उपर्युक्त विवेचन ( गतपृष्ठों में उनके व्यक्तित्व और युग चेतना विषयक विवेचन ) से महाकवि माघ के पाण्डित्यपूर्ण कविता की पृष्ठभूमि उसका मूलाधार समझ में आ जाने से भामह का यह कथन 'अहो भारो महान् कवेः' - यथार्थ प्रतीत होता है ये सभी बातें माघ पर पूर्णतः घटित हो जाती हैं । उनके महाकाव्य- 'शिशुपालवध' - को अथ से इति तक पूरे मनोयोग से पढ़ लेने पर ज्ञात होता है कि इस कवि का संस्कृत भाषा एवं साहित्य पर कितना असाधारण अधिकार रहा होगा । अपने व्यापक लोक ज्ञान के कारण वे न केवल मानव प्रकृति को ही समझते थे, अपित् गज-तरग आदि पशओं की प्रकति के अच्छे ज्ञाता भी थे । उनको सर्वशास्त्र-तत्त्वज्ञता को देखकर नवसर्ग गते माघे नव शब्दों न विद्यते' अथवा 'काव्येषु माघ: कवि: कालिदासः' जैसी उक्तियाँ निराधार प्रतीत नहीं होती, उनका पाण्डित्य सर्वगामी था । अत: किसी को उनके चित्रकाव्य तथा उनकी यमक योजना ने आकर्षित किया तो किसी को उनके अर्थालंकारों ने । कोई उनके वर्णन वैचित्र्य पर मुग्ध हुआ है, तो कोई काव्य में निहित भाव सौष्ठव पर, कोई सहृदय उनकी कल्पना की उडान पर आश्चर्यचकित होता है तो कोई उनके प्रकाण्ड पाण्डित्य पर विस्मित । यहाँ उनकी व्युत्पत्रता ( बहुज्ञता ) पर एक विहंगम दृष्टि अभीष्ट है - व्युत्पत्ति - श्रुति (वेद) माघ का श्रुतिविषयक ज्ञान अत्यन्त प्रशंसाह है । प्रातः काल के समय इन्होंने अग्निहोत्र का सुन्दर वर्णन किया है । इन्होंने हवन-कर्म में आवश्यक सामधेनी ऋचाओं का उल्लेख किया है । ( ११। ४१ ) वैदिक स्वरों की विशेषताओं का उन्हें पूर्ण ज्ञान था । स्वरभेद से अर्थभेद उत्पन्न हो जाता है - इस नियम का उल्लेख काव्य के (१४। २४ ) वें श्लोक में देखने को मिलता है ।
SR No.009569
Book TitleShishupal vadha Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajanan Shastri Musalgavkar
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size63 MB
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