SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीयःसनः (१) विशेष-श्रुतश्रवा--सभापर्व (४३,१-२०, २४ ) के अनुसार श्रुतश्रवा चेदिराज दमघोष की भार्या का नाम है। यह श्रीकृष्ण की बुआ और शिशुपाल की माँ थीं। इन्होंने अपने पुत्र शिशुपाल की जीवन रक्षा के निमित्त श्रीकृष्ण से प्रार्थना की थी। इस पर भगवान् ने कहा था-इसके मैं १०० अपराध क्षमा करूँगा। (२) वलरामजी ने श्रीकृष्ण से कहा कि आपने रुक्मिणी का हरण करते समय शिशुपाल को पराजित किया था, वही पराजय आपके प्रति उसको शत्रुता का मूल कारण है। नरकासुर को जीतने के लिए जब आप गये हुए थे तब शिशुपाल ने द्वारिकापुरी को घेर लिया और बभ्रु यादव की स्त्री का अपहरण कर लिया। इस प्रकार उसने अनेकबार हमारा अपकार किया है और इसीलिए फूआ का पुत्र होने पर भी, वह हमारा सहज मित्र न होकर, कृत्रिम शत्रु सिद्ध होता है। अतः उसके साथ सन्धि नहीं करनी चाहिए ।। ४१ ।। ' प्रसङ्ग-प्रस्तुत श्लोक में बलराम जी कहते हैं कि कृत्रिम शत्रु शिशुपाल की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उपेक्षा करने से हानि होगी। अत्राप्युपेक्षायां दोषमाह विधाय वैरं सामर्षे नरोऽरौ य उदासते। प्रक्षिप्योदर्चिषं कक्षे शेरते तेऽभिमारुतम् ॥ ४२ ॥ विधायेति ॥ ये नरः पुमांसः । 'स्युः पुमांसः पञ्चजनाः पुरुषाः नरः' इत्यमरः । सामर्षे प्रागेव सरोषेऽरी वरं विधाय । स्वयं चाऽपकृत्येत्यर्थः । उदासते उपेक्षन्ते ते नरः कक्षे गुल्मे । 'कक्षस्तु .गुल्मे दोर्मूले पापे जीर्णवने तृणे' इति वैजयन्ती। उदचिषमधिकज्वालमग्नि प्रक्षिप्य अभिमारुतम् । वाभिमुख्येऽव्ययीभावः । शेरते स्वपन्ति । तद्वन्नाशहेतुरित्यर्थः । 'शीडो रुट (७।१६) इति रुडागमः । अत्र ये उदासते ते शेरते इति विशिष्टोदासीन्यशयनयोवियार्थयोनिर्दिष्टकत्वासम्भवात्सादृश्यलक्षणायामसम्भवद्वस्तुसम्बन्धो वाक्यार्थनिर्वृ तिरिति निदर्शनाभेदः। न चायं दृष्टान्तः । वाक्यभेदेन प्रतिविम्बकारणाक्षेपे तस्योत्थानात् । अत्र तु वाक्यार्थे वाक्यार्थसमारोपाद्वाक्यकवाक्यतायां तदभाव इत्यलङ्कारसर्वस्वकारः ।। ४२ ।। अन्वयः-ये नरः सामर्षे भरौ वरं विधाय उदासते ते कक्षे उदर्चिपं प्रक्षिप्य अभिमारुतं शेरते ॥ ४२ ॥ हिन्दी अनुवाद-जो अति क्रोधी शत्रु से वैर करके उसके प्रति उदासीन हो जाते हैं, वे सुखी घास की राशि में प्रज्वलित अग्नि को डालकर, हवा के रुख की ओर सोते हैं, अर्यात् वे अपने नाश को शीघ्र बुलाते हैं ।। ४२ ।।। प्रसङ्ग-प्रस्तुत श्लोक में बलराम जी कहते हैं कि बहुत काल से पीड़ा
SR No.009569
Book TitleShishupal vadha Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajanan Shastri Musalgavkar
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size63 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy