SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६० शिशुपालवधम् विविध उत्पीड़न-जनित अशान्त चित्त के कारण इन्द्रने राज्य-सुखों का उपभोग करना त्याग दिया था। अब आपके कृपा प्रसाद से वह अपने निष्कण्टक राज्यसुखों का उपभोग करने में पुनः समर्थ होगा ॥ ७४ ॥ (२) इन्द्राणी पुलोमा असुर की पुत्री थी । पुलोमा इन्द्रका श्वशुर था । इस असुर की पुत्री का नाम शची था । ( मत्स्य पुराण- ६.२० - १ ) यह इन्द्र द्वारा मारा गया और शची इन्द्रको व्याही गयी । ( ब्रह्मां २.२० ४९, ३.६.७, २४, वायु ५० - ३७ ) (३) नारदमुनि द्वारा कथित इन्द्रका यह सन्देश था कि जिसने पूर्व जन्म में रावण होकर कठिन तपस्या से शंकर को प्रसन्न किया और अभीष्ट वर प्राप्त कर इन्द्रकी पुरी 'अमरावती' और 'नन्दन वन' को उजाड़ दिया । अप्सराओं के रल बलपूर्वक हरण किये । कुबेर, वरुण, यम, सूर्य, चन्द्र, वायु, अग्नि, शेष और स्वर्गीय सुन्दरियों तथा देवों को अपने यहां दासदासों के रूप में बन्दीकर रक्खा, उसका आपने रामके अवतारमिव से वध किया था। अब इस समय भी वहीं शिशुपाल के रूप में उत्पन्न होकर पूर्व-जन्म की तरह पुनः जगत् को उत्पीडित कर रहा है, अतः आप पुनः पूर्व की तरह इसका भी वधकर के हम ( इन्द्रादि देवों ) को सुखी करें । प्रसङ्ग - ( प्रस्तुत श्लोक में श्रीकृष्ण के क्रोध का वर्णन है ) -- जब नारदमुनि उपर्युक्त इन्द्रका सन्देश कहकर स्वर्ग को चले गये तव श्रीकृष्ण को शिशुपाल के प्रति क्रोध हुआ, जिसका महाकवि माघ इस प्रकार वर्णन कर रहे हैं ओमित्युक्तवतोऽथ शार्ङ्गिण इति व्याहृत्य वाचं नभ स्तस्मिन्नुत्पतिते पुरः सुरमुनाविन्दोः श्रियं बिभ्रति ॥ शत्रूणामनिशं विनाशपिशुनः क्रुद्धस्य चैद्यम्प्रति व्योम्नीव भ्रुकुटिच्छलेन वदने केतुश्चकारास्पदम् ।। ७५ ।। इति श्रीमाघकृतौ शिशुपालवधे महाकाव्ये कृष्णनारदसम्भाषणं नाम प्रथमः सर्गः ॥ १ ॥ ब ओमिति ॥ तस्मिन्सुरमुनौ नारदे इति इत्थंभूतां वाचं व्याहृत्योक्त्वा नभ उत्पतिते समुद्गते पुरोऽग्रे इन्दोः श्रियं विभ्रति सति । अय मुनिवाक्यानन्तरमोमित्युक्तवतस्तथास्त्वित्यङ्गीकृतवतः । 'ओम्प्रश्नेऽङ्गीकृतो रोषे' इति विश्वः । चेदीनां जनपदानामयं चैद्यः शिशुपालः। ‘वृद्धेत्कोसलाजादाञ् यङ्' (४।१।१७१) इति ञ्यप्रत्ययः । तम् प्रतिक्रुद्रस्य शाङ्गिणो वदने व्योम्नीवानिशं सर्वदा । अव्यभिचारेणेत्यर्थः । शत्रूणां विना १. शत्रूणां नितराम् । २. कति संयति । 'दुपोढद्रढिम' इति च पाठः ॥
SR No.009569
Book TitleShishupal vadha Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajanan Shastri Musalgavkar
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size63 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy