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________________ ८ शिशुपालवधम् कृशेऽल्पे च' इति च विश्वः । त्वया स दैत्यः मुग्धौ नवौ । 'मुग्धः सौम्ये नवे मूढे' इति वैजयन्ती। यो कान्तास्तनो तयोः सङ्गेनापि भगुरैः कुटिल खैरुरोविदारमुरो विदार्य । 'परिक्लिश्यमाने च' ( ३।४।५५ ) इति णमुल्प्रत्ययः । प्रतिचस्करे हतः । किरतेः कर्मणि लिट् । 'ऋच्छत्यताम्' (७।४।११ ) इति गुणः। "हिंसायां प्रतेश्च' (६।१११४१ ) इति सुडागमः । वज्रकठिनोऽपि नखंविदारित इति वाङ्मनसयोरगोचरमहिम्नस्ते कि मसाध्यमिति भावः ।। ४७ ॥ अन्वयः-नृसिंह ! अतनुं सैंही तनुं विभ्रता सटाच्छटाभिन्नघनेन त्वया सः मुग्धकान्तास्त नसङ्गभगुरैः नखै; उरोविदारं प्रतिचस्करे ॥ ४७ ॥ हिन्दी अनुवाद--हे नृसिंह ! ( नर तथा सिंहरूपधारी भगवन् श्रीकृष्ण !) विशाल (विस्तीर्ण होने के कारण आकाशस्पर्शी) सिंह-शरीर को धारण करते हुए, तथा केसरों-(आयाल गर्दन के केशों के) समूहों से मेघों को विदीर्ण करनेवाले आपने उस (हिरण्यकशिपु ) का नवीन कामिनी के स्तनद्वय के सम्पर्कजनित टेढ़े नखों से वक्षःस्थल फाड़कर ( उस हिरण्यकशिपु का ) वध किया था ॥ ४७ ॥ विशेष-श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध के तृतीय अध्याय में वर्णित कथा के अनुसार हिरण्यकशिपु ने घोर तपस्या कर ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त किया कि नर, देव, राक्षस नागादि से वह अवध्य रहे। भीतर, बाहर, दिन में, रात्रि में पृथ्वी या आकाश में किसी प्राणी के द्वारा उसकी मृत्यु न हो । युद्ध में कोई उसका सामना न कर सके। सम्पूर्ण-प्राणियों का वह सम्राट् बनें तथा उसे अक्षय ऐश्वर्य प्राप्त हो । परिणामस्वरूप वह अतुलनीय शक्ति प्राप्त कर अखिल विश्व को त्रस्त करने लगा। अतः भगवान् विष्णु ने नृसिंहरूप धारण कर जंघा पर उसे बैठाकर संध्या समय उसके वक्षःस्थल को अपने नखों से विदीर्ण कर डाला ॥ ४७ ॥ प्रसङ्ग--प्रस्तुत श्लोक में कविमाघ हिरण्यकशिपु का दूसरे जन्म में रावण होने का वर्णन करते हैं। विनोदमिच्छन्नथ दर्पजन्मनो रणेन कण्ड्डास्त्रिदशैः समं पुनः॥ स रावणो नाम निकामभीषणं बभूव रक्षःक्षतरक्षणं दिवः॥४८॥ अथास्य जन्मान्तरचेष्टितान्याचष्टे विनोदमिति ॥ अथ स हिरण्यकशिपुः पुनर्भूयोऽपि त्रिदर्शः सम सह । साक साधं समं सह' इत्यमरः। रणेन दर्पादन्तःसाराज्जन्म यस्यास्तस्याः कण्ड्वाः भुजकण्डूतेविनोदमपनोदमिच्छन् । प्राग्भवनखक्षतस्तदपनोदाभावादित्यर्थः । दिव: स्वर्गस्य क्षतं नष्टं रक्षणं रक्षा येन तत् । क्षतधुरक्षणमित्यर्थः । सापेक्षत्वेऽपि गमकत्वात्समासः । अनेन देवसर्वस्वापहारित्वमुक्तम् । भीषयत इति भीषणम । नन्द्या
SR No.009569
Book TitleShishupal vadha Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajanan Shastri Musalgavkar
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size63 MB
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