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________________ 20 शिशुपालवधम् सम्भूताः । पचाद्यच् । मुदः सन्तोषा न ममुः। अतिरिच्यन्ते स्मेत्यर्थः । चतुर्दशभवनभरणपर्याप्ते वपुषि अन्तर्न मान्तीति कविप्रौढोक्तिसिद्धातिशयेन स्वतः सिद्धस्याभेदेनाध्यवसितातिशयोक्तिः । सा च मुदामन्तः सम्बन्धेऽप्यसम्बन्धोक्त्या सम्बन्धासम्बन्धरूपा ॥ २३ ॥ अन्वय-युगान्तकालप्रतिसंहृतात्मनः कैटभद्विपः यस्यां तनौ जगन्ति सविकासम् आसत तत्र तपोधनाभ्यागमसंभवाः मुदः न ममुः ॥ २३ ॥ हिन्दी अनुवाद-युगों के अन्त में (कृतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग के अन्त में) जीवों को अपने आप में लीन करने वाले कैटभारि ( श्रीकृष्ण) के जिस शरीर में ( चौदहों ) भुवन विस्तार के साथ रहते थे, उसी ( शरीर ) में तपोधन (नारद ) के आने से उन्पन्न हर्ष नहीं समा सका ॥ २३ ॥ विशेष-प्रलयकाल में जब अखिल विश्व जलमग्न था और भगवान विष्णु शेष शय्या पर योगनिद्रा में थे, उस समय उनके कान के मैल से दो असुरों (मधु और कैटभ ) का जन्म हुआ। उन दोनों ने विष्ण के नाभिकमल पर स्थित ब्रह्मा का वध करना चाहा। इस पर ब्रह्मा जी ने योगमाया की स्तुति की। योगमाया की प्रेरणा से भगवान् शेष शय्या से उठे और उन दोनों असुरों के साथ पाँच हजार वर्षों तक युद्ध किया। अन्त में उन असुरों की इच्छानुसार भगवान् विष्णु ने उन दोनों के मस्तक अपनी जाँघ पर रख कर चक्र से काट दिये। इसीलिए विष्णु को 'कैटभारि' कहा जाता है । ११२३ प्रसा-इस श्लोक में श्रीकृष्ण के 'पुण्डरीकाक्ष' नाम की सार्थकता का वर्णन किया गया है। निदाघधामानमिवाधिदीधितिं मुदा विकास मुनिमभ्युपेयुषी। विलोचने विभ्रदधिश्रितश्रिणी स पुण्डरीकाक्ष इति स्फुटोऽभवत् ॥२४॥ निदाघेति । निदाघमुष्णं धाम किरणो यस्य तथोक्तम् । 'निदाघो ग्रीष्मकाले स्यादुष्णस्वेदाम्बुनोरपि' इति विश्वः । अर्क मिवाधिदीधितिमधिकतेजसं मुनिमभिलक्ष्य । 'अभिरभागे' इति लक्षणे कर्मवचनीयसंज्ञा कर्मप्रवचनीययुक्ते द्वितीया ( २।३।८ ) । मुदा विकासमभ्युपेयुपी उपगते । क्वसुप्रत्ययान्तो निपातः । अत एव अधिश्रिता प्राप्ता श्रीर्याभ्यां ते तयोक्ते । 'इकोऽचि विभक्तो' (७।११७३ ) इति नुमागमः । विलोचने बिभ्रत् । 'नाभ्यस्ताच्छतु (७।१।७८) इति नुमभावः । स हरिः पुण्डरीकाक्ष इत्येवं स्फुटोऽभवत् , सूर्यसन्निधाने श्रीविकासभावादक्षणां पुण्डरीकसाधात् । पुण्डरीके इवाक्षिणी यस्येत्यवयवार्थलाभे पुण्डरीकाक्ष इति व्यक्तम् । अन्वर्थसंज्ञोऽभूदित्यर्थः । विभ्रत्स्फुटोऽभवदिति पदार्थहेतुकस्य काव्यलिङ्गस्य निदाघधामानमिवेत्युपमासापेक्षत्वादनयोरङ्गाङ्गिभावेन सङ्करः ॥ २४ ॥
SR No.009569
Book TitleShishupal vadha Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajanan Shastri Musalgavkar
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size63 MB
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