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________________ नैषधमहाकाव्यम् अन्वयः-अमलपद्मरागजम् अर्ककरः श्रितं पिपासु यन्नृपसम निशि स्वरुचा जिह्वानिमया पताकया सुधाकरं लिलिहे । हिन्दी-निर्मल पद्मराग मणियों से निर्मित, सूर्य-किरणों के समोप हुआ अतएव प्यासा जिस ( नगरी ) के राजा का गृह रात में अपनी कान्ति से जिह्वासदृश लाल बनी पताका द्वारा सुधाकर को चाटा करता है। टिप्पणी-पूर्वभंगिमा के अनुरूप ही राजगृह की अत्युच्चता द्योतित । मल्लिनाथ के अनुसार अलंकार-स्थिति पूर्वश्लोकवत् है, विशेषता यही है कि यहाँ 'जिह्वानिभया'-उपमा है और संकर है। विद्याधर की दृष्टि में अलंकारस्थिति पूर्ववत् हो है। चंद्रकलाकार ने भी तद्गुण-प्रतीयमानोत्प्रेक्षा-उपमा का अंगांगिभाव संकर माना है ॥१००॥ अमृतद्युतिलक्ष्म पीतया मिलितं यद्वलभीपताकया। वलयायितशेषशायिनस्सखितामादित पीतवाससः ।। १०१ ॥ जीवातु-अमृतेति । पीतया पीतवर्णया यस्या नगर्याः वलभ्यां 'कूटागा. रन्तु वलभि'रित्यमरः । पताकया मिलितं सामीप्यात्सङ्गतममृतद्युतिलक्ष्म चन्द्रलाञ्छनं वलयायिते वलयीभूते शेषे शेत इति तच्छायिनः पीतवाससः पीताम्बरस्य विष्णोः सखितां सदृशतामादित अग्रही दित्युपमालङ्कारः ॥१०१॥ अन्वयः-पीतया यद्वलभीपताकया मिलितम् अमृता तिलक्ष्म वलयायित. शेषशायिनः पीतवाससः सखिताम् आदित। हिन्दी-जिस ( नगरी ) के ऊँचे कूटागार की पीले रंग की पताका से मिल कर अमृतद्युति चंद्र का शश-चिह्न कुण्डली बनाये शेषनाग पर शयन करते पीतांबर हरि ( विष्णु ) के साम्य को प्राप्त होता था। टिप्पणी-ऊँची वलभी की पीली पताका चंद्र के काले चिह्न के चारों ओर घिर जाती है, जिससे वह चंद्र-कलंक 'पीतांबरो हरिः' बन जाता है, गोल घेरे वाला चंद्रमा ही, गेडुरी मारे पड़ा शेषनाग है, जिस पर शशचिह्नरूप पीतांबर विष्णु सोये हैं, अर्थात् बड़ी ऊंची है वलमी (कूटागार )।
SR No.009566
Book TitleNaishadhiya Charitam
Original Sutra AuthorHarsh Mahakavi
AuthorSanadhya Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size74 MB
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