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________________ द्वितीयः सर्गः ७५ इतना कोलाहल हो रहा था कि व्यापारी को भौंरे का भान ही नहीं हुआ । मल्लिनाथ को यहाँ यह आपत्ति है कि बैठा होने पर भौंरा 'मनमन' नहीं करता, उड़ने पर ही करता है, कवि की यह उक्ति प्रौढिवाद के आधार पर ही है । उनके अनुसार 'अलि' को वर्णसाम्य के आधार पर कस्तूरी मानने के कारण यहाँ सामान्य अलंकार है, जिससे भ्रान्तिमान् अलंकार व्यंजित होता है ॥९२।। रविकान्तमयेन सेतूना सकलाहं ज्वलनाहितोष्मणा । शिशिरे निशि गच्छतां पुरा चरणौ यत्र दुनोति नो हिमम् ॥ ९३॥ जीवातु--- रविकान्तेति । यत्र नगर्यां सकलाहं कृत्स्नमहं 'राजाहःसखिभ्यष्टच' । 'रात्राहाहाः पुसी'ति पुल्लिङ्गता, अत्यन्तसंयोगे द्वितीया, योगविभागात्समासः । ज्वलनेन तपन कराभिपातात्प्रज्वलनेन आहितोष्मणा जनितोष्मणा जनितोष्णेन रविकान्तमयेन सेतुना सेतुसदृशेनाध्वना सूर्यकान्तकुट्टिमाध्वनेत्यर्थः । गच्छता सञ्चरतां चरणौ चरणानित्यर्थः । 'स्तनादीनां द्वित्वविशिष्टा जातिः प्रायेणे' ति जाती द्विवचनम् । शिशिरे शिशिरतौं तत्रापि निशि हिमं पुरा नो दुनोति नापीडयत् । 'यावत्पुरानिपातयोर्लट्' अत्र सेतोरूष्मासम्बन्धेऽपि तत्सम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिः, तत्रोत्तरस्याः पूर्वसापेक्षत्वात सङ्करः ॥ ९३ ॥ ___ अन्वयः-यत्र सकलाहं ज्वलनाहितोष्मणा रविकान्तमयेन सेतुना गच्छतां चरणौ शिशिरे निशि हिमं पुरा नो दुनोति । हिन्दी-जिस ( पुरी ) में समग्न दिन ( सूर्य के ) ताप से उष्ण (गरमाये सूर्यकांतमणिमय सेतु पर जानेवालों के चरणों को शिशिर ऋतु की (ठंडी) रात में शीत कष्ट नहीं दे पाता था। टिप्पणी-धूप से दिन में सेतु की सूर्यकांतमणियाँ इतनी गर्म हो जाती थीं कि उष्णता रात भर बनी रहती थी और जानेवाले बड़े सुख से पुल पार कर लेते थे, ठंड जाड़े की ऋतु में भी नहीं लग पाती थी। मल्लिनाथ के अनुसार यहाँ सेतु-उष्मा का असम्बन्ध रहने पर भी सम्बन्धकथन के कारण अतिपायोक्ति है, उसमें उत्तरवत्तिनी के पूर्वसापेक्ष होने के कारण संकर है। विद्याघर
SR No.009566
Book TitleNaishadhiya Charitam
Original Sutra AuthorHarsh Mahakavi
AuthorSanadhya Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size74 MB
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