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________________ द्वितीयः सर्गः पर अतिशयोक्ति का निर्देश किया है, मल्लिनाथ ने असंबंध में संबंधकथनरूपा अतिशयोक्ति और गम्योत्प्रेक्षा के संकर का, क्योंकि घन-घरट्ट-कलह का हेतु पघर शब्द है, जिससे उत्प्रेक्षा होती है ।। ८५ ।।। वरणः कनकस्य मानिनी दिवमङ्कादमराद्रिरागताम् । घनरत्नकवाटपक्षतिः परिरभ्यानुनयन्नुवास याम् ।। ८६॥ जीवातु-वरण इति । कनकस्य सम्बन्धी वरणः तद्विकारः प्राकारः स एवामराद्रिर्मेरुः यां नगरीमेव मानिनी कोपसम्पन्नामत एव अङ्काग्निजोत्सङ्गादागतां भूलोकं प्राप्तां दिवमरावतीं घने निबिडे रत्नानां कवाटे रत्नमयकवाटे एव पक्षती पक्षमूले यस्य स सन् परिरम्य उपगूह्य मेरोः पक्षवत्त्वात्पक्षतिरूपत्वमनुसरन् अनुवर्तमानः उवास । कामिनः प्रणयकुपितां प्रेयसीमाप्रसादमनुगच्छन्तीति भावः । रूपकालङ्कारः स्फुट एव, तेन चेयं नगरी कुतश्चित कारणादागता द्यौरेव वरणश्च स्वर्णाद्रिरेवेत्युत्प्रेक्षा व्यज्यते ॥ ८६ ॥ अन्वयः-कनकस्य वरणः अमराद्रिः यो मानिनीम् अङ्कात् आगतां दिवं घनरत्नकवाटपक्षतिः परिरभ्य अनुनयन उवास । हिन्दी-स्वर्ण प्राकार-रूप देवगिरि सुमेरु जिस मानिनी ( नगरी ) को गोद से छिटक आयी स्वर्गपुरी के तुल्य अनेक रत्नजटित कपाट-रूप पंखों से युक्त हो आलिंगन कर मनाता हुआ बस गया है। टिप्पणी-यहां नगरी की मानिनी नायिका स्वर्गपुरी से तुलना की है, जो अपने प्रिय सुमेरु से रूठ कर गोद से छिटक आयो है, प्राकार प्रिय सुमेरु, रत्नजटित किवाड़ उसके पंख और बाहु हैं, जिनसे उड़ कर वह प्रिया के पास आ पहुँचा है और आलिंगन करके मानिनी को मना रहा है। प्रिया वहाँ से जाती नहीं, सो 'पखेरू' होते हुए भी प्रिय कहीं बस गया है । अर्थात् पुरी स्वर्गपुरी के तुल्य है और सुमेरु जितना उन्नत और दमकोला । मल्लिनाथ के अनुसार रूपक द्वारा उत्प्रेक्षा व्यंग्य है, विद्यानाथ रूपक का निर्देश करते हैं और कहते हैं कि यहाँ समासोक्ति नहीं हो सकती, क्योंकि नायक-नायिका के व्यवहार की प्रतीति रूपक से ही होती है। चंद्रकलाकार ने समस्तवस्तुविषय साङ्ग
SR No.009566
Book TitleNaishadhiya Charitam
Original Sutra AuthorHarsh Mahakavi
AuthorSanadhya Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size74 MB
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