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________________ द्वितीयः सर्गः थोड़ा-सा भी अंधकार न रह पाता था, सो प्रत्येक तिथि जो पूर्णिमा ही की भ्रांति हो जाया करती थी। मल्लिनाथ ने भेद होने पर भी अभेद-कथन के कारण यहाँ अतिशयोक्ति मानी है, विद्याधर के अनुसार यहां असंबंध में संवंधकथनरूपा अतिशयोक्ति के अतिरिक्त तिथियों में गृह-व्यवहार समारोप से समासोक्ति और पूर्णिमा के अतिथिभाव के कारण रूपक भी है, शब्दालंकार अनुप्रास है ॥ ७६ ॥ सुदतीजनमज्जनापितघु सृणैर्यत्र कषायिताशया। न निशाऽखिलयापि वापिका प्रससाद ग्रहिलेव मानिनी ॥ ७७ ॥ जीवातु-सुदतीति । यत्र नगर्या शोभना दन्ता यासां ताः सुदत्यः स्त्रियः, अत्रापि विधानाभावात्रादेशश्चिन्त्य इति केचित् 'अग्रान्तशुद्धशुभ्रवृषवराहेभ्यश्चेति चकारात् सिद्धिरित्यन्ये, सुदत्यादयः स्त्रीषु योगरूढाः, 'स्त्रियां संज्ञायामि'ति दत्रादेशात् साघव इत्यपरे, तदेतत्सर्वमभिसन्धायाह वामनः'सुदत्यादयः प्रतिविधेया' इति । ता एव जना लोकाः तेषां मज्जनादवगाहादपितः क्षालितैः घुसृणैः कुङ्कुम। कषायिताशया सुरभिताम्यन्तरा भोगचिह नः कलुषितहृदया च वाप्येव वापिका दीपिका प्रहिला, 'ग्रहोऽनुग्रहनिर्बन्घावि'ति विश्वः । तद्वती दीर्घरोषा पिच्छादित्वादिलच दिवादिः । मानिनीस्त्रीणामीpकृतः कोपो 'मानोऽन्यासङ्गिनि प्रिये' इत्युक्तलक्षणो मानः तद्वती नायिकेव अखिलया निशा निशया सर्वरात्रिप्रसादनेनेत्यर्थः। न प्रससाद प्रसन्नहृदया नाभूत् तादृक् क्षोभादिति भावः ॥ ७७ ॥ अन्वयः-यत्र सुदतीजनमज्जनापितः घुसृणः कषायिताशया वापिका महिला मानिनी इव अखिलया निशा अपि न प्रससाद । हिन्दी-जिस नगरी में सुन्दर दांतो वाली सुन्दरी-समूह की जलक्रीडा से वितीर्ण कुकुमागरागों से गंदले जल वाली बावड़ी पूरी रात भी उसी प्रकार प्रसादित-स्वच्छ नहीं रहती थी, जैसे कि ( सपत्नीजन में प्रतिफलित प्रिय के ) कुकुमांगराग को देख दूषित मन वाली, दुराग्रहयुक्ता मानवती नारी (प्रिय के द्वारा भाँति-भांति से मनाये जाने पर भी ) अशया ( जागी ) रहकर रात में भी प्रसन्न नहीं होती है। टिप्पणी-भाव यह कि स्नान और जलक्रीडा इतनी अधिक हुआ करती
SR No.009566
Book TitleNaishadhiya Charitam
Original Sutra AuthorHarsh Mahakavi
AuthorSanadhya Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size74 MB
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