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________________ द्वितीयः सर्गः ५७ अन्वयः-मुवि तच्छायम् अवेक्ष्य तत्क्षणात् दिवि दिक्षु च वितीर्णचक्षुषा जनेन पृथुवेगद्रुतमुक्तदृक्पथः असौ यन् न ददृशे । हिन्दी--धरती पर पड़ती उसकी छाया देख कर उसी क्षण से आकाश और उड़ने की दिशाओं की ओर आँखें उठाकर देखते जनसमूह द्वारा अत्यंत तीव्र गति के कारण नयनपथ से ओझल होता वह (हंस) उड़कर जाता न दीख पड़ा। टिप्पणी-लोक जब तक ऊपर आंख उठा कर देख सके तब तक तो तीव्र गति से उड़ता हंस आंख-ओझल हो गया। विद्याधर ने इस श्लोक में काव्यलिंग और पुनरुक्तवदामास अलंकार माने हैं, चंद्रकलाकार ने केवल कायलिंग का निर्देश किया है ॥ ७१ ॥ न वनं पथि शिश्रियेऽमुना क्वचिदप्युच्चतरद्रु चारुतम् । न सगोत्रजमन्ववादि वा गतिवेगप्रसर चा रुतम् ।। ७२ ॥ जीवातु-नेति । गतिवेगेन प्रसरद्रुचा प्रसर्पत्तेजसा अमुना हंसेन क्वचिदपि उच्चतराणामत्युन्नतानां द्रुणां द्रुमाणां चारुता रम्यता यस्मिस्तत् वनं न शिश्रिये । सगोत्रजं बन्धुजन्यं रुतं कूजितं वा नान्ववादि नानूदितम् । मध्यमार्गे अध्वश्रमापनोदनं बन्धुसम्भाषणादिकमपि न कृतमिति सुहृत्कार्यानुसन्धानपरोक्तिः ‘पलाशो द्रुद्रुमागमा' इत्यमरः ॥ ७२ ।। अन्वयः-गतिवेप्रगसरद्रुचा अमुना पथि क्वचित्, अपि उच्चतरद्रुचारतं वनं न शिश्रिये सगोत्रजं रुतं वा न अन्ववादि । हिन्दी-उड़े जाने के वेग के कारण जिसकी शोमा का प्रसार हो रहा था, ऐसे इस ( हंस ) ने मार्ग में कहीं ऊँचे-ऊँचे द्रुमों ( वृक्षों ) की सुषमा से मंडित वन में आश्रय नहीं लिया और न अपने कूजन करते सगोत्र हंसों के साथ संलाप किया। टिप्पणो-ऊँचे वृक्ष देख कर वन में विश्राम करना और सजातीय पक्षियों के साथ कूजन-संलाप करना पक्षि-स्वभाव है, किंतु शीघ्र पहुँचने के आकांक्षी राज हंस ने इस स्वभाव का व्यतिक्रम किया। यमकालङ्कार ॥ ७२ ॥
SR No.009566
Book TitleNaishadhiya Charitam
Original Sutra AuthorHarsh Mahakavi
AuthorSanadhya Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size74 MB
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