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________________ नंषधमहाकाव्यम् टिप्पणी-वृक्ष पर लगा फल दीखा, एक और शुभशकुन हुआ । 'आश्चर्यरस' में स्वशब्दवाच्यत्व नामक रसदोष । विद्याधर के अनुसार असंदष्ट यमक अलंकार, चंद्रकलाकार के अनुसार प्रथम चतुर्थ-चरण में आये दो अन्त्ययमकों की संसृष्टि ।। ६६ ॥ नभसः कलभैरुपासितं जलदै रितरक्षपन्नगम् । स ददर्श पतङ्गपुङ्गवो विटपच्छन्नतरक्षुपन्नगम् ।। ६७॥ जीवातु--नभस इति । पुमान् गौः वृषभः विशेषणसमासः, 'गोरतद्धितलुगि'ति समासान्तष्टच् स इव पतङ्गपुङ्गवः पक्षिश्रेष्ठ उपमितसमासः, नभसः कलभैः खेचरकरिकल्परित्यर्थः । जलदरुपा सितं व्याप्तं भूरयः बहवस्तरक्षवो मृगादनाः पन्नगा यस्य तं विटपः शाखा विस्तारेण, "विस्तारो विटपोऽस्त्रियामि'त्यमरः छन्नतराः अतिशयेन छादिताः क्षुपा ह्रस्वशाखाः, 'ह्रस्वशाखाशिफः क्षुप' इत्यमरः । नगं पर्वतं ददर्श 'पूर्णकुम्भादिदर्शनं पान्थक्षेमकरमिति निमित्तज्ञाः । अन्वयः--सः पतङ्गपुङ्गवः कलभः जलदैः उपासितं भूरितरक्षुपं विटपच्छन्नतरापन्नगं नगं ददर्श । हिन्दी-आकाशचारियों में श्रेष्ठ उस ( हंस ) ने हस्तिशावकों जैसे मेघों से व्याप्त, प्रचुर शाखा-वल्लरियों से युक्त छोटे-छोटे वृक्षों से परिपूर्ण वृक्षों में छिपे तेंदुए और सर्यों से भरा पवंत देखा । टिप्पणी--यात्रा में हाथी का मिलना शुभ माना जाता है, अतः पर्वतशिखरों पर छाये मेघों की ‘कलभ' रूप में कल्पना की गयी, हिंस्र पशु और सर्प का दीखजाना अशकुन माना जाता है, अतः उनके अदर्शन के निमित्त उनका वृक्षों में छिपा हो जाना बताया गया। पर्वत पर 'यह सब होता ही है । 'साहित्यविद्याधरी' के अनुसार यहां अतिशयोक्ति और असंदष्टयमक अलंकार हैं, 'चंद्रकलाख्या' के अनुसार रूपक और अंत्ययमक ॥ ६७ ॥ स ययौ धुतपक्षतिः क्षणं क्षणमूर्ध्वायनविभावनः । विततीकृतनिश्चलच्छदः क्षणमालोककदत्तकौतुकः ॥ ६८ ॥ जीवातु- स इति । स हंसः क्षणं धुतपक्षतिः कम्पितपक्षमूलः क्षणम् ऊर्ध्वा
SR No.009566
Book TitleNaishadhiya Charitam
Original Sutra AuthorHarsh Mahakavi
AuthorSanadhya Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size74 MB
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