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________________ द्वितीयः सर्गः ४७ जीवातू--अमितमिति । हे खग ! जनः विदर्भागतजनैः मम श्रवणप्राघुणकीकृता कर्णातिथीकृता तद्विषयीकृतेत्यर्थः । 'आवेशिकः प्राघुणक आगन्तुरतिथिस्तथेति हलायुधः। अमितमपरिमितं मधु क्षौद्रं तद्वदतिमधुरेत्यर्थः । तत्कथा तद्गुणवर्णना अधैर्यधारिणोत्यन्ताघीरस्य मम मदनानलबोधने मदनाग्निप्रज्वलने घाय्या सामिनी भवेत् 'ऋक् सामिधेनी धाय्या च या स्यादग्निसमिन्धने' इत्यमरः । 'पाय्यसान्नाय्ये'त्यादिना निपातः । धिक् वाक्यार्थों निन्द्यः । अत्र तत्कथायाः घाय्यात्मना प्रकृतमदनाग्नीन्धनोपयोगात् परिणामालङ्कारः, 'आरोप्यमाणस्य प्रकृतोपयोगित्वे परिणाम' इत्यलङ्कारसर्वस्वकारः । ___अन्वयः-खग, जनैः मम श्रवणप्राघुणिकीकृता अमितं मधु तत्कथा अधर्यधारिणः मम मदनानलबोधने घाय्या अभवत्-( इति ) धिक् । हिन्दी-हे विहंग, लोकजनों द्वारा मेरे कानों को अतिथि बनायी गयी ( सुनायी गयी ) प्रचुर मधु-सम मीठो उसकी कथा मुझ अघोर व्यक्ति के कामज्वर को दीप्त करने में सामिषेनी-अग्नि दीप्त करनेवाली ऋचा ( अग्नि-प्रज्वलन-मंत्र) बन गयी-सो धिक्कार है मुझे । टिप्पणी-दमयंती की कथा तो अमृत समान मीठी है, पर हाय रे हतभाग्य नल, उसके निमित्त वह अग्निस मिन्धनी सामधेनी ऋचा प्रमाणित हुई। सुधावधीरणी' कथा का ज्वलन-सहायिका बन जाना दुर्भाग्य ही है । 'अलंकारसर्वस्व' के अनुसार आरोप्यमाण के प्रकृतोपयोगी होने पर परिणाम अलंकार होता है'आरोप्यमाणस्य प्रकृतोपयोगित्वे परिणामः।' इस आधार पर मल्लिनाथ ने यहाँ दमयंती-कथा के धाय्या रूप में प्रकृतमदनाग्नि के इंधनस्वरूप उपयोग से परिणाम अलंकार माना है, विद्याधर के अनुसार यहां अतिशयोक्ति-रूपक-अर्थान्तरन्यास की संसृष्टि है। पद्य के प्रथम चरण में रूपक और मदन में अनलत्व के आरोप का कथा में मंत्रत्व के आरोप में निमित्त होने से अश्लिष्ट शब्दनिबंधन परंपरितरूपक मान कर चंद्रकलाकार ने दोनों रूपकों का अंगांगिभाव. संकर माना है ।। ५६ ॥ विषमो मलयाहिमण्डलीविषफूत्कारमयो मयोहितः । बत कालकलत्रदिग्भवः पवनस्तद्विरहानलंधसा ॥ ५७ ॥
SR No.009566
Book TitleNaishadhiya Charitam
Original Sutra AuthorHarsh Mahakavi
AuthorSanadhya Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size74 MB
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