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________________ १०४ नपधमहाकाव्यम् विधुरो दुःस्थोऽपि मनागीषत्कुतूहलाक्रान्तमनाः कौतुकितचित्तोऽभूत्, गृहीतकामोऽभूदित्यर्थः॥११९॥ अन्वयः--सः महीमहेन्द्रः एकान्तमनोविनोदिनं तं शकुन्तं क्षणम् अवेक्ष्य प्रियावियोगात् निर्भरं विधुरः, अपि मनाक कुतूहलाक्रान्तमनाः अभूत् । हिन्दी-इस धरती को इंद्र ( नल ) का मन वहाँ निर्जन में मनोविनोद करने वाले अथवा वहाँ एकांत वन में राजा का मन प्रसन्न करने वाले अथवा नियमपूर्वक अत्यन्त आह लाददायक उस पक्षी ( स्वर्णहंस ) को क्षण भर निहार कर प्रिया के पियोग के कारण अत्यन्त विह्वल होने पर भी थोड़ा-सा कुतूहल से आक्रांत हो गया। _ टिप्पणी-विचित्र पदार्थ प्रत्येक अवस्था में मन को आकृष्ट करते ही हैं । ऐसा ही नल के साथ हुआ, कौतुक से उसका चित्त भर उठा। विद्याधर के अनुसार अनुप्रास और विशेष अलंकार ।।११९।।। अवश्यभव्येष्वनवग्रहग्रहा यया दिशा धावति वेधसः स्पृहा । तृणेन वात्येव तयाऽनुगम्यते जनस्य चित्तेन भृशावशात्मना ॥ १२० ।। जीवातु-कथमीदृशे चापल्ये प्रवृत्तिरस्य धीरोदात्तस्येत्याशङ्कय नात्र जन्तोः स्वातन्त्र्यं किन्तु भाव्यर्थानुसारिणी विवातुरिच्छव तथा प्रेरयतीत्याह-अवश्येति । अवश्यभव्येष्ववश्यं भाव्यर्थेषु विषये 'भव्यगेया'दिना कर्तरि यत्प्रत्ययान्तो निपातः, 'लुम्पेदवश्यमः कृत्ये' इत्यवश्यमो मकारलोपः, अनवग्रहग्रहा अप्रतिवन्धनिर्वन्धा निरङ्कुशाभिनिवेशेति यावत्, ‘ग्रहोऽनुग्रहनिर्बन्धग्रहणेषु रणोद्यम' इति विश्वः । वेधसः स्पृहा विधातुरिच्छा यया दिशा धावति येनाध्वना प्रवर्त्तते तयैव दिशा भृशावशात्मनाऽत्यन्तपरतन्त्रस्वभावेन जनस्य चित्तेन तृणेन वात्या वातसमूह इव, 'पाशादिभ्यो यः' अनुगम्यते, वेधसः स्पृहा कर्म ॥ १२० ॥ अन्वयः-अवश्यभव्येषु वेधसः अनवग्रहग्रहा स्पृहा यया दिशा धावति तया जनस्य भृशावशात्मना चित्तेन तृणेन वात्या इव अनुगम्यते । हिन्दी-नियम से होने वाले शुभाशुभ कार्यों के विषय में विधाता की अबाध्य-निरर्गल प्रसार वाली इच्छा जिस मार्ग से भागती जाती है, उसी
SR No.009566
Book TitleNaishadhiya Charitam
Original Sutra AuthorHarsh Mahakavi
AuthorSanadhya Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size74 MB
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