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________________ नैष महाकाव्यम् अन्वयः - जनेन तदर्थम् अध्याप्य तद्वने विमुक्ताः पटवः शुकाः तम् अस्तुवन्, तथैव तत्पौरुषगायनीकृताः शारिका: ( सारिका: ) च स्वरामृतेन उपजगुः । ९२ हिन्दी -- परिजनों द्वारा नल की स्तुति के लिए सिखाकर उस वन में छोड़े गये, चतुर ( स्पष्ट बोलने वाले ) तोतों ने ( वहाँ नल की ) स्तुति गायी और उसी प्रकार नल के पराक्रम के गीत गाना सीखीं मैनाओं ने अपने स्वरामृत ( मीठे स्वर ) से गायन किया । टिप्पणी- वन में भी पक्षियों द्वारा राजा की विरुदावली का गान । कालिदास ने भी वन में गाय चराते सम्राट् दिलीप के विषय में ऐसा ही उल्लेख किया है - - ' आलोकशब्दं वयसां विरावैः । ' ( रघुवंश २१९ ) । विद्याधर के अनुसार जाति अलंकार ॥ १०३ ॥ इतीष्टगन्धाढ्यमटन्नसौ वनं पिकोपगीतोऽपि शुकस्तुतोऽपि च । अविन्दतामोदभरं बहिश्वरं विदर्भसुभ्रूविरहेण नान्तरम् ॥ १०४ ॥ जीवा - इतीति । इतीत्थमिष्टगन्धाढ्य मिष्टसौगन्ध्य सम्पन्नं वनमटन्, 'देशकालाध्वगन्तव्या कर्मसंज्ञा ह्यकर्म्मणामि ति वनस्य देशत्वात् कर्म्मत्वम् । असौ नलः पिकः कोकिलैरुपगीतोऽपि शुकैः स्तुतोऽपि च परं केवलं 'परं स्यादुत्तमानाप्तवैरिदूरेषु केवल' इति विश्वः । वहिरामोदभरं सौरभ्यातिरेकमेवाविन्दत विदर्भसुभ्रूविरहेण हेतुना आन्तरमामोदभरमानन्दातिरेकरूपन्नाविन्दत न लब्धवान्, प्रत्युत दुःखमेवान्वभूदिति भावः । ' आमोदो गन्धहर्षयोरिति विश्वः ॥ १०४ ॥ अन्वयः - इति इष्टगन्धाढ्यं वनम् अटन् पिकोपगीतः अपि शुकस्तुतः अपि च असौ परं बहिः आमोदमरम् अविन्दत, विदभ्रसुभ्रू विरहेण आन्तरम् ( अविन्दत ) | हिन्दी - - इस प्रकार अभीष्ट गन्ध से समृद्ध वनमें भ्रमण करते हुए कोकिल गान और शुक-स्तुति सुनकर भी उसने केवल बाह्य आनंद ही प्राप्त किया, विदर्भ की सुनयना ( दमयंती ) से विरह के कारण ( वास्तविक ) आंतरिक आनंद नहीं ।
SR No.009566
Book TitleNaishadhiya Charitam
Original Sutra AuthorHarsh Mahakavi
AuthorSanadhya Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size74 MB
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