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________________ प्रथमः सर्गः ७३ टिप्पणी केवड़े की कलिका को अत्यन्त उद्दीपन माना जाता है, मान्यता है कामांध नर-नारी उसे देखकर उचितानुचित का मान भूल जाते हैं, केवड़े की कली देखकर उनका धैर्य भंग होता है और पत्र-दर्शन से हृदय विदीर्ण । उपमा-रूपक का संकर ॥८०॥ धनुर्मधुस्विन्नकरोऽपि भीमजापरं परागैस्तव धूलिहस्तयन् । प्रसनधन्वा शरसाकरोति मामिति धाऽऽक श्यत तेन कैतकम् ।।८१॥ जीवातु--धनुरिति । कैतक ! प्रसून धन्वा धनुर्यस्येति प्रसूनधन्वा पुष्पचापः । 'वा संज्ञायामि' त्यवङादेशः । अत एव धनुषो मधुना मकरन्देन स्विन्नकरः आर्द्रपाणिः सन् अत एव परागैः रजोभिः धूलिहस्तयन् पुनः पुनः धूल्युद्भावितहस्तमात्मानं कुर्वन् अन्यथा धनुःस्रसनादिति भावः, तत्करोतेय॑न्ताल्लट: शत्रादेशः । अतिभीमजापरमतिमात्रं दमयन्त्यासक्तं मां शरसात् शराधीनङ्करोति, 'तदधीने च' इति सातिप्रत्ययः, अन्यथा स्रस्तचापः स मां किं कुर्यादिति भावः । इतीत्थं श्लोकत्रयोक्तिरिति तेन राजा क्रुधा कैतकमाक्रुश्यत अपराधोद्धाटने अघोष्यतेत्यर्थः ।। ८१ ॥ अन्वयः--धनुर्मधुस्विन्नकरः अपि प्रसूनधन्वा तव परागः धूलिहस्तयन्, भीमजापरं मां शरसात्करोति-इति तेन क्रुधा केतकम् अक्रुश्यत । हिन्दी- उस ( नल ) ने क्रोधपूर्वक इसलिए केवड़े को कोसा कि फूलों के धनुष से टपकते मधु से गीला हाथ होने पर भी पुष्पधन्वा काम तेरे पराग की धूलि हाथ में ( चिकनापन मिटाने के लिए, जिससे बाण फिसल न जाय ) लगा कर ही भीमपुत्री-परायण मुझे अपने बाण का आखेट बना पाता है । टिप्पणी-इस प्रकार तीन श्लोकों में कामोद्दीपक केतक-पुष्प का वर्णन किया गया। अतिशयोक्ति अलंकार ।।८।। विदर्भसुभ्र स्तनतुङ्गताप्तये घटानिवापश्यदलं तपस्यतः । फलानि धूमस्य धयानधोमखान् स दाडिमे दोहदधूपिनि द्रु मे ॥८२।। जीवातु-विदर्भेति । 'तरुगुल्मलतादीनामकाले कुशलः कृतम् । पुष्पादुत्पादितं द्रव्यं दोहदं स्यात्तु तक्रिया ।।' इति शब्दार्णवे। दोहदश्वासी घूपश्च
SR No.009566
Book TitleNaishadhiya Charitam
Original Sutra AuthorHarsh Mahakavi
AuthorSanadhya Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size74 MB
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