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________________ कथासार कथामुख विदिशा नामकी राजधानीमें शूद्रक नामके प्रसिद्ध राजा थे। एक दिन उनके दरबारमें एक चाण्डालकन्याने आकर वैशम्पायन नामके तोतेको राजाको सौंपा। राजाके पूछनेपर तोता अपना वृत्तान्त इस प्रकार सुनाने लगा हे राजन् ! मुझे जनकर जब मेरी माताकी मृत्यु हुई उसी समयसे मेरे पिता मेरा पालन करने लगे। एक दिन एक शिकारीने मेरे पिताको मार डाला, उसको नजर बचाकर मैंने किसी प्रकार अपनेको बचाया। पंखोंके नहीं उगनेसे मैं रेंगकर जब पानीकी खोजमें किसी तरह चलने लगा तब जाबालिमुनिके पुत्र हारीत मुझे अपने पिताके आश्रममें ले आये। मुझे देखकर जाबालिमुनि मेरा वृत्तान्त इस प्रकार सुनानेलगे । कथारम्भ उज्जयिनीमें तारापीड नामके प्रतापी राजा रहते थे। उनकी पत्नी विलासवती नामकी थीं। शुकनासनामक एक विद्वान् ब्राह्मण उनके मन्त्री थे। राजदम्पतिको सन्तान न होनेसे बहुत खेद था। महाकालकी उपासनासे राजाका चन्द्रापीड-नामक और मन्त्रीका वैशम्पायन नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। राजाने उन दोनोंको नगरसे बाहर एक विद्यामन्दिरमें रखकर तत्तद्विषयोंके विद्वानोंसे विद्याओं और कलाओंमें शिक्षित बनाया । बारह सालके अनन्तर स्नातक होकर, परस्पर परम मित्रता रखकर वे दोनों नगर में रहने लगे। वहींपर मन्त्री शुकनासने राजकुमार चन्द्रापीडको राजनीतिका अत्यन्त उपयोगी उपदेश दिया। तारापीहने राजकुमारको युवराज पदमें अभिषेक कर इन्द्रायुध नामक एक अद्भुत घोड़ा दिया। उनकी सेवाके लिए पत्त्रलेखा नामकी एक बन्दिनी राजकुमारी ताम्बूलकरवाहिनीके रूपमें सौंपी गई। तब राजकुमार अपने मित्र वैशम्पायनके साथ दिग्विजय करनेके लिए निकले । तीन वर्षों तक विजयलाम करते हुए चन्द्रापीड आगे बढ़ते गये। एक बार मृगयाके प्रसङ्गमें राजकुमार दो किन्नरोंका पीछा करते हुए अपने शिबिरसे बहुत दूर चले गये, किन्नरयुगल अदृश्य हुए। चन्द्रापीडने अच्छोद सरोवरके तटपर तपस्या करती हुई एक अतिसुन्दरी गौरकाया महाश्वेता नामको गन्धर्वराजकुमारीको देखा । राजपूत्रके पूछनेपर महाश्वेताने आत्मकथाके प्रसङ्गमें कपिञ्जलके मित्र ऋषिपुत्र पुण्डरीकके साथ हुए अपने पूर्वरागको बतलाया। मिलनेके पहले ही विरह सहन न कर सकनेसे पुण्डरीकका मरण होनेसे जब मैंने सती होनेकी इच्छा की तब "तुम आत्महत्या मत करो तुम दोनोंका पुनः सम्मेलन होगा" ऐसी आकाशवाणी हुई और पुण्डरीकके मृत शरीरको एक दिव्यमूर्ति आकाशमार्गसे ले गई । "अरे दुष्ट ! मेरे मित्रको तू कहाँ ले जा रहा है ?" ऐसा कहते हुए उसका पीछा कर कपिजल भी अदृश्य हए । “उसी समयसे मैं नियमपरायण हो रही हूँ" ऐसा कहकर महाश्वेताने राजकुमारको फलमूल खानेके लिए दिया। महाश्वेताने राजकुमारकी "गन्धर्वराजकुमारी कादम्बरी नामकी मेरी सखी मेरी दुःखद घटना सुनकर कौमार्यव्रत धारण कर रही है" ऐसा कहा । महाश्वेता चन्द्रापीडको हेमकूटमें कादम्बरीके पास ले गई। देखनेके अनन्तर ही कादम्बरी और चन्द्रापोड दोनों ही परस्पर प्रणयमें आसक्त हुए। दो तीन दिन वहीं बिताकर चन्द्रापीड अपने शिबिरमें लौटे, उसी समय उनको शीघ्र राजधानीमें आनेके लिए पिताका आदेशपत्त्र मिला । तब चन्द्रापोडने "पत्त्रलेखाको लेकर तुम पीछे आना" सेनापति पुत्र मेघनादको ऐसी आज्ञा देकर उज्जयिनीके लिए प्रस्थान किया। इस प्रकर राजकुमार मार्गमें द्रविडधार्मिकसे अधिष्ठित चण्डिकाका दर्शन कर उज्जयिनी पहँचे, और उन्होंने माता-पिता और मन्त्री शुकनासका अभिवादन कर अपने प्रासादमें निवास किया। कुछ दिनके अनन्तर मेघनादके साथ आई हुई पत्त्रलेखाने कादम्बरीकी विरहावस्था और उलहनावाली उनकी उक्तिको भी चन्द्रापीडसे कहा । (पूर्वभाग समाप्त)
SR No.009564
Book TitleKadambari
Original Sutra AuthorBanbhatt Mahakavi
AuthorSheshraj Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1979
Total Pages172
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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