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________________ समयसार ११५ होकर कर्म ही कर्ताको प्राप्त हुआ। यह आचार्य परंपरासे आयी हुई ऐसी श्रुति है कि पुरुषवेद कर्म स्त्रीकी इच्छा करता है और स्त्रीवेद नामा कर्म पुरुषकी चाह करता है, अतः कोई भी जीव अब्रह्मचारी नहीं है। हमारे उपदेशमें तो ऐसा ही है कि धर्म ही कर्मको चाहता है ऐसा कहा गया है। जिस कारण जीव दूसरेको मारता है और दूसरेके द्वारा मारा जाता है वह भी प्रकृति ही है। इस अर्थमें यह बात कही जाती है कि यह परघात नामक प्रकृति है, अतः हमारे उपदेशमें कोई भी जीव उपघात करनेवाला नहीं है, क्योंकि कर्मही कर्मको घातता है ऐसा कहा गया है। इस प्रकार जो कोई मुनि ऐसे सांख्य मतका प्ररूपण करते हैं उनके प्रकृति ही करती है और सब आत्मा अकारक -अकर्ता है। अथवा तू ऐसा मानेगा कि मेरा आत्मा मेरे आत्माको करता है तो ऐसा जाननेवाले तुम्हारा यह मिथ्यास्वभाव है, क्योंकि आत्मा नित्य असंख्यातप्रदेशी आगममें कहा गया है। उन असंख्यात प्रदेशोंसे वह हीनाधिक नहीं किया जा सकता। जीवका जीवरूप विस्तारकी अपेक्षा निश्चयसे लोकप्रमाण जानो। वह जीवद्रव्य उस परिमाणसे क्या हीन तथा अधिक कैसे कर सकता है। अथवा ऐसा मानिए कि ज्ञायकभाव ज्ञानस्वभाव कर स्थित है तो उस मान्यतासे यह सिद्ध हुआ कि आत्मा अपने स्वभाव कर स्थिर रहता है और उसी हेतुसे यह सिद्ध हुआ कि आत्मा अपने आपको स्वयमेव नहीं करता है।।३३२-३४४ ।। आगे क्षणिकवादको स्पष्ट कर उसका निषेध करते हैं -- केहिंचि दु पज्जएहिं, विणस्सए णेव केहिचि दु जीवो। जम्हा तम्हा कुव्वदि, सो वा अण्णो व णेयंतो।।३४५।। केहिंचि दु पज्जएहिं, विणस्सए णेव केहिंचि दु जीवो। जम्हा तम्हा वेददि, सो वा अण्णो व णेयंतो।।३४६।। जो चेव कुणइ सो चिय, ण वेयए जस्स एस सिद्धंतो। सो जीवो णायव्वो, मिच्छादिट्ठी अणारिहदो।।३४७।। अण्णो करेइ अण्णो, परिभुंजइ जस्स एस सिद्धंतो। सो जीवो णादव्वो, मिच्छादिट्ठी अणारिहदो।।३४८।। यतः जीव नामा पदार्थ कितनी ही पर्यायोंसे विनष्ट होता है और कितनी ही पर्यायोंसे विनष्ट नहीं होता इसलिए वही करता है अथवा अन्य करता है ऐसा एकांत नहीं है। यतः जीव कितनी ही पर्यायोंसे विनष्ट होता है और कितनी ही पर्यायोंसे विनष्ट नहीं होता इसलिए वही जीव भोगता है अथवा अन्य भोगता है ऐसा एकांत नहीं है। इसके विपरीत जिसका ऐसा सिद्धांत है कि जो करता है वह नहीं भोगता है, वह जीव मिथ्यादृष्टि है तथा अर्हत मतसे बाह्य है ऐसा जानना चाहिए। इसी प्रकार जिसका ऐसा सिद्धांत है कि अन्य करता है और दूसरा कोई भोगता है वह जीव भी मिथ्यादृष्टि तथा अर्हत मतसे बाह्य जानना
SR No.009561
Book TitleSamaya Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages79
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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