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________________ कर्मरूपी रजकी सेवा करता है तो वह कर्मरूपी रज भी उसके लिए सुख उपजानेवाले विविध प्रकारके सुख देता है। जिस प्रकार वही पुरुष वृत्ति के निमित्त राजा की सेवा नहीं करता है तो राजा उसके लिए सुख उपजानेवाले विविध प्रकारके भोग नहीं देता है इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव विषयोंके लिए कर्मरूपी रज की सेवा नहीं करता है तो वह कर्मरूपी रज भी उसके लिए सुख उपजानेवाले विविध प्रकारके भोग नहीं देता है।।२२४-२२७ ।। आगे सम्यग्दृष्टि जीव निःशंक तथा निर्भय होता है यह कहते हैं -- सम्मद्दिट्ठी जीवा, णिस्संका होंति णिब्भया तेण। सत्तभयविप्पमुक्का, जम्हा तम्हा दु णिस्संका।।२२८ ।। सम्यग्दृष्टि जीव चूँकि शंकारहित होते हैं इसलिए निर्भय हैं और चूँकि सप्तभयसे रहित हैं इसलिए शंकारहित हैं। भावार्थ -- निर्भयता और निःशंकपनेमें परस्पर कार्यकारण भाव है।।२२८ ।। आगे निःशंकित अंगका स्वरूप कहते हैं -- जो चत्तारिवि पाए, छिंदंति ते कम्मबंधमोहकरे। सो णिस्संको चेदा, सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो।।२२९।। जो आत्मा कर्मबंधके कारण मोहके करनेवाले उन मिथ्यात्व आदि पापोंको काटता है उसे निःशंक सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए।।२२९।। । आगे नि:कांक्षित अंगका स्वरूप कहते हैं -- जो दु ण करेदि कंखं, कम्मफलेसु तह सव्वधम्मेसु। __सो णिक्कंखो चेदा, सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो।।२३०।। जो आत्मा कर्मोंके फलोंमें तथा वस्तुके स्वभावभूत समस्त धर्मों में वांछा नहीं करता है उसे नि:कांक्षित सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए।।२३० ।। आगे निर्विचिकित्सित अंगका स्वरूप कहते हैं -- जो ण करेदि जुगुप्पं, चेदा सव्वेसिमेव धम्माणं। मगर सो खलु णिव्विदिगिच्छो', सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो।।२३१।। जो जीव वस्तुके सभी धर्मोंमें ग्लानि नहीं करता उसे निश्चयसे निर्विचिकित्सित सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए।।२३१।। आगे अमूढदृष्टि अंगका स्वरूप कहते हैं -- १. मोहबाध करे ज. वृ.। २. जो ण करेदि दु कंखं ज. वृ.। ३. गिंछो ज. वृ. ।
SR No.009561
Book TitleSamaya Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages79
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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