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________________ जइया स एव संखो, सेद सहावं तयं पजहिदूण । गच्छेज्ज किण्हभावं, तइया सुक्कत्तणं पजहे ।। २२२ । । तह णाणी वि हुजइया, णाणसहावं तयं पजहिऊण । अण्णाणेण परिणदो, तइया अण्णाणदं गच्छे ।। २२३ ।। जिस प्रकार यद्यपि शंख विविध प्रकारके सचित्त अचित्त और मिश्र द्रव्योंका भक्षण करता है तो भी उसका श्वेतपना काला नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार यद्यपि ज्ञानी विविध प्रकारके सचित्त अचित्त और मिश्र द्रव्योंका उपभोग करता है तो भी उसका ज्ञान अज्ञानताको प्राप्त नहीं कराया जा सकता। और जिस समय वही शंख उस श्वेत स्वभावको छोड़कर कृष्ण भावको प्राप्त हो जाता है उस समय वह जिस श्वेतपनेको छोड़ देता है उसी प्रकार ज्ञानी जिस समय उस ज्ञानस्वभावको छोड़कर अज्ञानस्वभावसे परिणत होता है उस समय अज्ञानभावको प्राप्त हो जाता है। भावार्थ -- ज्ञानीके परकृत बंध नहीं है, वह आपही जब अज्ञानरूप परिणमन करता है तब स्वयं निजके अपराधसे बंधदशाको प्राप्त होता है ।। २२०-२२३ ।। आगे सराग परिणामोंसे बंध और वीतराग परिणामोंसे मोक्ष होता है यह दृष्टांत तथा दातके द्वारा स्पष्ट करते हैं -- पुरिस जह कवि इह, वित्तिणिमित्तं तु सेवए रायं । तो सोवि देदि राया, विविहे भोए सुहुप्पाए ।। २२४ ।। एमेव जीवपुरिसो, कम्मरयं सेवदे सुहणिमित्तं । तो सोवि देइ कम्मो, विविहे भोए सुहुप्पाए । । २२५ ।। जह पुण सो चि पुरिसो, वित्तिणिमित्तं ण सेवदे रायं । तो सोण देइ राया, विविहे भोए सुहुप्पाए । । २२६ ।। एमेव सम्मदिट्ठी, विसयत्थं सेवए ण कम्मरयं । तो सोण देइ कम्मो, विविहे भोए सुहुप्पाए ।। २२७ ।। जिस प्रकार इस लोकमें कोई पुरुष आजीविकाके निमित्त राजाकी सेवा करता है तो राजा भी उसके लिए सुख उपजानेवाले विविध प्रकारके भोग देता है, इसी प्रकार जीव नामा पुरुष सुखके निमित्त १. २२२ और २२३ के मध्य ज. वृ. में निम्न गाथा अधिक उपलब्ध है. जह संखो पोग्गलदो जइया सुक्कत्तणं पजाहेदूण | गच्छेज्ज किण्हभावं तइया सुक्कत्तणं पजहे ।।
SR No.009561
Book TitleSamaya Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages79
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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