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________________ समयसार मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये चेतन अचेतनके भेदसे दो प्रकारके हैं। उनमें जो चेतनरूप हैं वे जीवमें बहुत भेदोंको लिये हुए हैं तथा जीवके अभिन्न परिणामस्वरूप हैं। और जो अचेतनरूप हैं वे ज्ञानावरणादि कर्मोंके कारण होते हैं। तथा उन मिथ्यात्वादि अचेतन भावोंका कारण रागद्वेषादि भावोंका करनेवाला जीव है।।१६४-१६५ ।। आगे ज्ञानी जीवके उन आस्रवोंका अभाव होता है ऐसा कहते हैं -- णत्थि दु आसवबंधो, सम्मादिट्ठिस्स आसवणिरोहो। संते पुव्वणिबद्धे, जाणदि सो ते अबंधंतो।।१६६।। सम्यग्दृष्टि जीवके आस्रव बंध नहीं है, किंतु आस्रवका निरोध है। वह सत्तामें स्थित पहलेके बँधे हुए कर्मोंको केवल जानता है, नवीन बंध नहीं करता है।।१६६।। आगे राग द्वेष मोह ही आस्रव हैं ऐसा नियम करते हैं -- भावो रागादिजुदो, जीवेण कदो दु बंधगो भणिदो। रायादिविप्पमुक्को, अबंधगो जाणगो णवरिं।।१६७।। जीवके द्वारा किया हुआ जो भाव रागादिसे सहित है वह बंधका करनेवाला कहा गया है और जो रागादिसे रहित है वह बंधका नहीं करनेवाला है, किंतु जाननेवाला है।।१६७ ।। आगे रागादि रहित शुद्ध भाव असंभव नहीं हैं यह दिखलाते हैं -- पक्के फलम्हि पडिए, जह ण फलं वज्झए पुणो विंटे। जीवस्स कम्मभावे, पडिए ण पुणोदयमुवेई ।।१६८।। जिस प्रकार किसी वृक्षादिका फल पककर जब नीचे गिर जाता है तब वह फिर बोंडीके साथ संबंधको प्राप्त नहीं होता इसी प्रकार जीवका कर्मभाव जब पककर गिर जाता है -- निर्जीर्ण हो चुकता है तब फिर उदयको प्राप्त नहीं होता।।१६८ ।। आगे ज्ञानी जीवके द्रव्यास्रवका अभाव दिखलाते हैं -- पुहवीपिंडसमाणा, पुव्वणिबद्धा दु पच्चया तस्स। कम्मसरीरेण दु ते, बद्धा सव्वेपि णाणिस्स।।१६९।। उस पूर्वोक्त ज्ञानी जीवके अज्ञान अवस्थासे बँधे हुए द्रव्यास्रवरूप सभी प्रत्यय पृथिवीके पिंडके समान हैं और कार्मण शरीरके साथ बँधे हुए हैं। ।१६९।। आगे ज्ञानी जीव निरास्रव क्यों हैं? यह कहते हैं -- . तह- १. मुवेहि ज. वृ. ।
SR No.009561
Book TitleSamaya Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages79
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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