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________________ ७८ कुन्दकुन्द-भारती आगे कर्मका स्वयमेव बंधपना सिद्ध करते हैं -- सो सव्वणाणदरिसी, कम्मरएण णियेण वच्छण्णो। संसारसमावण्णो, ण विजाणादि सव्वदो सव्वं ।।१६०।। वह सबको जानने देखनेवाला आत्मा अपने कर्मरूपी रजसे आच्छादित हुआ संसार दशाको प्राप्त हो रहा है और सब तरहसे सब वस्तुओंको नहीं जानता है।।१६० ।।। आगे कर्म सम्यग्दर्शनादि मोक्षके कारणोंको घातते हैं ऐसा निरूपण करते हैं -- सम्मत्तपडिणिबद्धं, मिच्छत्तं जिणवरेहिं परिकहियं। तस्सोदयेण जीवो, मिच्छादिट्ठित्ति णायव्वो।।१६१।। णाणस्स पडिणिबद्धं, अण्णाणं जिणवरेहिं परिकहियं। तस्सोदयेण जीवो, अण्णाणी होदि णायव्वो।।१६२।। चारित्तपडिणिबद्धं, कसायं जिणवरेहि परिकहियं। तस्सोदयेण जीवो, अचरित्तो होदि णायव्वो।।१६३।। सम्यक्त्वको रोकनेवाला मिथ्याकर्म है ऐसा जिनेंद्र भगवानने कहा है, उसके उदयसे जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है ऐसा जानना चाहिए। ज्ञानको रोकनेवाला अज्ञान है ऐसा जिनेंद्र भगवानने कहा है, उसके उदयसे जीव अज्ञानी होता है ऐसा जानना चाहिए ।।१६१-१६३ ।। इस प्रकार पुण्यपापका प्ररूपण करनेवाला तीसरा अधिकार पूर्ण हुआ। *** आस्रवाधिकारः आगे आस्रवका स्वरूप कहते हैं -- मिच्छत्तं अविरमणं, कसायजोगा य सण्णसण्णा दु। बहुविहभेया जीवे, तस्सेव अणण्णपरिणामा।।१६४ ।। णाणावरणादीयस्स, ते दु कम्मस्स कारणं होंति। तेसिंपि होदि जीवो, य रागदोसादिभावकरो।।१६५।।
SR No.009561
Book TitleSamaya Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages79
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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