SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 10
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५४ कुन्दकुन्द-भारती एवंविहा बहुविहा, परमप्पाणं वदंति दुम्मेहा। ते ण परमट्टवाइहि, णिच्छयवाईहिं णिद्दिवा।।४३।। आत्माको न जाननेवाले और परको आत्मा कहनेवाले कितने ही पुरुष अध्यवसानको तथा कर्मको जीव कहते हैं। अन्य कितने ही पुरुष अध्यवसान भावोंमें तीव्र अथवा मंद अनुभागगतको जीव कहते हैं। अन्य लोग नोकर्मको जीव मानते हैं। कोई कर्मके उदयको जीव मानते हैं। कोई ऐसी इच्छा करते हैं कि कर्मोंका जो अनुभाग तीव्र अथवा मंद भावसे युक्त है वह जीव है। कोई जीव तथा कर्म दोनों मिले हुएको ही जीव मानते है। और अन्य कोई कर्मोंके संयोगसे ही जीव इष्ट करते हैं -- मानते हैं। इस प्रकार बहुतसे दुर्बुद्धि जन परको आत्मा कहते हैं परंतु वे निश्चयवादियोंके द्वारा परमार्थवादी नहीं कहे गये हैं।।३९-४३।। ऐसा कहनेवाले सत्यार्थवादी क्यों नहीं हैं? इसका उत्तर कहते हैं -- एए सव्वे भावा, पुग्गलदव्वपरिणामणिप्पण्णा। केवलिजिणेहिं भणिया, कह ते जीवो त्ति वच्चंति।।४४।। ये सभी भाव पुद्गल द्रव्यके परिणमनसे उत्पन्न हुए हैं ऐसा केवली जिनेंद्र भगवानके द्वारा कहा गया है। फिर वे जीव हैं यह किस प्रकार कहा जा सकता है? ।।४४ ।। जबकि रागादि भाव चैतन्यसे संबंध रखते हैं तब उन्हें पुद्गलके किस प्रकार कहा जाता है? इसका उत्तर कहते हैं -- अट्ठविहं पि य कम्मं, सव्वं पुग्गलमयं जिणा विंति। जस्स फलं तं वुच्चइ, दुक्खं ति विपच्चमाणस्स।।४५।। पककर उदयमें आनेवाले जिस कर्मका प्रसिद्ध फल दुःख कहा जाता है वह आठों प्रकारका कर्म सब पुद्गलमय है ऐसा जिनेंद्रदेव कहते हैं। भावार्थ -- यह आत्मा कर्मका उदय होनेपर दुःखरूप परिणमता है और जो दुःखरूप भाव है वह अध्यवसान है। इसलिए दुःखरूप भावमें चेतनपनेका भ्रम उपजता है। वास्तवमें दुःखरूप भाव चेतन नहीं है, कर्मजन्य है अतः जड़ ही है।।४५ ।। आगे शिष्य प्रश्न करता है कि यदि अध्यवसानादि भाव पुद्गलस्वभाव हैं तो उन्हें दूसरे ग्रंथों में जीवरूप क्यों कहा गया है? इसका उत्तर कहते हैं -- ववहारस्स दरीसण,मुवएसो वण्णिदो जिणवरेहिं। जीवा एदे सव्वे, अज्झवसाणादओ भावा।।४६।। १. उच्चंति ज. वृ. । २. वुच्चदि ज. वृ. ।
SR No.009561
Book TitleSamaya Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages79
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy