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________________ प्रवचनसार २१३ आगे मुनिका असत्संगसे बचना चाहिए ऐसा कहते हैं -- णिच्छिदसुत्तत्थपदो, समिदकसायो तवोधिगो चावि। लोगिगजणसंसग्गं, ण जहदि जदि संजदो ण हवदि।।६८।। जिसने आगमके अर्थ और पदोंका निश्चय किया है, जिसकी कषायें शांत हो चुकी हैं और जो तपश्चरणसे अधिक है ऐसा होकर भी यदि मुनि लौकिक मनुष्योंके संसर्गको नहीं छोड़ता है तो वह संयमी नहीं है।६८ ।। ५ आगे लौकिक मनुष्यका लक्षण कहते हैं -- णिग्गंथं पव्वइदो, वट्टदि जदि एहिगेहि कम्मेहिं। सो लोगिगोदि भणिदो, संजमतवसंपजुत्तोवि ।।६९।। यदि कोई मुनि निग्रंथ दीक्षा धारण करके इस लोकसंबंधी ज्योतिष तंत्र मंत्र आदि क्रियाओं द्वारा प्रवृत्ति करता है तो वह संयम तथा तपसे युक्त होता हुआ भी लौकिक है ऐसा कहा गया है।।६९।। आगे सत्संग करना चाहिए ऐसा कहते हैं -- तम्हा समं गुणादो, समणो समणं गुणेहिं वा अहियं। अधिवसद तम्हि णिच्चं, इच्छदि जदि दुक्खपरिमोक्खं ।।७०।। इसलिए यदि साधु दुःखसे छुटकारा चाहता है तो वह निरंतर ऐसे मुनिके साथ रहे जो कि गुणोंकी अपेक्षा अपने समान हो अथवा अपनेसे अधिक हो।।७० ।। आगे संसार तत्त्वका उद्घाटन करते हैं -- जे अजधागहिदत्था, एदे तच्चत्ति णिच्छिदा समये। अच्चंतफलसमिद्धं, भमंति तेत्तो परं कालं ।।७१।। जो जिनमतमें स्थित होकर भी पदार्थको ठीक-ठीक ग्रहण नहीं करते हैं और अतत्त्वको 'यह तत्त्व है' ऐसा निश्चित कर बैठे हैं वे वर्तमान कालसे लेकर अनंत फलोंसे परिपूर्ण दीर्घकाल तक भ्रमण करते रहते हैं।।७१।। आगे मोक्षतत्त्वका स्वरूप बतलाते हैं -- १. समितकषाओ ज. वृ.। २. तओधिगो ज. वृ. । ३. चयदि ज. वृ. । ४. णविदि ज. वृ. । ४. ६८ वी गाथाके आगे ज. वृ. में निम्न गाथा अधिक व्याख्यात है -- तिसिदं व भुक्खिदं वा दुहिंदं दद्रुण जो हि दुहिदमणो। पडिवज्जदि तं किवया तस्सेसा होदि अणुकंपा।।१।। ६. पव्वयिदो ज.वृ. । ७ ... संजुदो चावि ज. वृ. ।
SR No.009560
Book TitlePravachana Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages88
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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