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________________ प्रवचनसार १७९ धारक कहलाने लगते हैं। ऐसे परमाणुओंका दूसरे परमाणुके साथ बंध नहीं होता। हाँ, उन परमाणुओंकी स्निग्धता और रूक्षताके अंशमें जब पुनः वृद्धि हो जायेगी तब फिर वे बंधके योग्य हो जायेंगे। परमाणुओंका जो परस्परमें बंध होता है उसमें उनकी रूक्षता और स्निग्धता ही कारण मानी गयी है। परमाणुओंका यह बंध अपनेसे दो अधिक गुणवालेके साथ होता है ऐसा नियम है। यह बंध स्निग्धका स्निग्धके साथ, रूक्षका रूक्षके साथ तथा स्निग्धका रूक्षके साथ अथवा रूक्षका स्निग्धके साथ होता है। दो गुणवालेका चार गुणवालेके साथ अथवा तीन गुणवालेका पाँच गुणवालेके साथ बंध होता है। इस प्रकार गुणीकी समता अथवा विषमता दोनों ही अवस्थाओंमें बंध होता है, परंतु गुणोंका दो अधिक होना आवश्यक है। जघन्य गुणवाले तथा समान गुणवाले परमाणुओंका परस्परमें बंध नहीं होता।।७२।। आगे किस प्रकारके स्निग्ध और रूक्ष गुणसे परमाणु पिंडपर्यायको प्राप्त होते हैं यह दिखलाते णिद्धा वा लुक्खा वा, 'अणुपरिणामा समा व विसमा वा। समदो दुराधिगा वा, बझंति हि आदिपरिणामा।।७३।। अपने शक्त्यंशोंसे परिणमन करनेवाले परमाण यदि स्निग्ध हों अथवा रूक्ष हों, दो चार छह आदि अंशोंकी गिनतीकी अपेक्षा सम हों अथवा तीन पाँच सात आदि अंशोंकी गिनतीकी अपेक्षा विषम हों, अपने अंशोंसे दो अधिक हों और आदि अंश -- जघन्य अंश से रहित हो तो परस्पर बंधको प्राप्त होते हैं, अन्यथा नहीं।।७३।। पूर्वोक्त बातको पुनः स्पष्ट करते हैं -- णिद्धत्तणेण दुगुणो, चदुगुणणिद्धेण बंधमणुहवदि। लुक्खेण वा तिगुणिदो, अणु बज्झदि पंचगुणजुत्तो।।७४।। स्निग्धतासे द्विगुण अर्थात् स्निग्धगुणके दो अंशोंको धारण करनेवाला परमाणु चतुर्गुण स्निग्धता के साथ अर्थात् स्निग्धताके चार अंश धारण करनेवाले परमाणुके साथ बंधका अनुभव करता है। और रूक्षता के त्रिगुण अर्थात् रूक्षगुणके तीन अंशोंको धारण करनेवाला परमाणु पाँचगुण युक्त रूक्ष अर्थात् रूक्षगुणके पाँच अंशोंको धारण करनेवाले परमाणुके साथ बँधता है -- मिलकर स्कंध दशाको प्राप्त होता इस कथनसे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि स्निग्धका स्निग्धकेही साथ और रूक्षका रूक्षके ही साथ बंध होता है। यह तो द्विगुणाधिकका बंध होता है इसका उदाहरणमात्र है। वैसे बंध स्निग्ध स्निग्धका, रूक्ष रूक्षका, स्निग्ध रूक्षका और रूक्ष स्निग्धका होता है ।।७४ ।। १. अणुपरिणामशब्देनात्र परिणामपरिणता अणवो गृह्यन्ते। ज. वृ.। २. अगले पृष्ठ पर देखिए ....
SR No.009560
Book TitlePravachana Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages88
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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