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________________ १५४ कुन्दकुन्द-भारता ज्ञेयतत्त्वाधिकारः अब ज्ञेय तत्त्वका कथन करते हुए यह दिखलाते हैं कि ज्ञेय अर्थात् ज्ञानका विषयभूत पदार्थ द्रव्य गुण और पर्यायस्वरूप है -- 'अत्थो खलु दव्वमओ, दव्वाणि गुणप्पगाणि भणिदाणि। तेहिं पुणो पज्जाया, पज्जयमूढा हि परसमया।।१।। निश्चयसे पदार्थ द्रव्यरूप है। द्रव्य गुणस्वरूप कहे गये हैं। उन द्रव्य और गुणोंसे पर्याय उत्पन्न होते हैं और जो जीव उन पर्यायोंमें ही मूढ़ हैं अर्थात् उन्हें ही द्रव्य मानते हैं वे परसमय हैं -- मिथ्यादृष्टि हैं। आगे स्वसमय और परसमयकी व्यवस्था दिखलाते हैं -- जे पज्जयेसु णिरदा, जीवा परसमयिगत्ति णिहिट्ठा। आदसहावम्मि ठिदा, ते सगसमया मुणेदव्वा।।२।। जो जीव मनुष्यादि पर्यायोंमें निरत हैं अर्थात् उन्हें ही आत्मद्रव्य मानते हैं वे परसमय कहे गये हैं और जो आत्मस्वभावमें स्थित हैं अर्थात् शुद्ध ज्ञानदर्शनस्वरूप आत्माको अपना मानते हैं उन्हें स्वसमय मानना चाहिए।।२।। अब द्रव्यका लक्षण कहते हैं -- अपरिच्चत्त सहावेणुप्पादव्वयधुवत्तसंबद्धं । गुणवं च सपज्जायं, जत्तं दव्वत्ति वुच्चत्ति ।।३।। जो अपने स्वभावको न छोड़ता हुआ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे संबद्ध रहता है, गुणवान है और पर्यायोंसे सहित है उसे द्रव्य कहते हैं।।३।। स्वभावका अर्थ अस्तित्व है, वह अस्तित्व स्वरूपास्तित्व और सादृश्यास्तित्व के भेदसे दो प्रकारका है। उनमेंसे स्वरूपास्तित्वका कथन करते हैं -- सब्भावो हि सहावो, गुणेहिं " सगपज्जएहिं चिंतेहिं। दव्वस्स सव्वकालं, उप्पादव्वयधुवत्तेहिं ।।४।। गुणोंसे, विविध प्रकारकी पर्यायोंसे और उत्पाद व्यय तथा ध्रौव्यसे द्रव्यका जो सदा सद्भाव रहता १. इस गाथाके पूर्व जयसेन वृत्तिमें निम्नांकित गाथाका भी व्याख्यान किया गया है -- तम्हा तस्स णमाई, किच्चा णिच्चंपि तं गणो होज्ज। वोच्छामि संगहादो, परमट्ठविणिच्छयाधिगमं ।।१।। ३. परसमयिगंति ज. वृ.। ३. अपरिचत्तसहावं ज. वृ। ४. जं तं ज. वृ। ५. सह ज. वृ. ।
SR No.009560
Book TitlePravachana Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages88
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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