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________________ प्रवचनसार १४९ 'पुण्य और पापमें विशेषता नहीं है' ऐसा जो नहीं मानता है वह मोहसे आच्छादित होता हुआ भयानक और अंतरहित संसारमें भटकता रहता है ।। ७७ ।। आगे जो पुरुष शुभोपयोग और अशुभोपयोगको समान मानता हुआ समस्त रागद्वेषको छोड़ता है वही शुद्धोपयोगको प्राप्त होता है ऐसा कथन करते हैं. -- एवं विदित्थो जो, दव्वेसु ण रागमेदि दोसं वा । उवओगविसुद्धो सो, खवेदि देहुब्भवं दुक्खं ।।७८ ।। इस प्रकार पदार्थके यथार्थ स्वरूपको जाननेवाला जो पुरुष परद्रव्योंमें राग और द्वेष भावको प्राप्त नहीं होता है वह उपयोगसे विशुद्ध होता हुआ शरीरजन्य दुःखको नष्ट करता है। सांसारिक सुख-दुःखका अनुभव राग-द्वेषसे होता है और चूँकि शुद्धोपयोगी जीवके वह अत्यंत मंद अथवा विनष्ट हो चुकते हैं इसलिए उसके शरीरजन्य दुःखका अनुभव नहीं होता है । । ७८ ।। आगे मोहादिका उन्मूलन किये बिना शुद्धताका लाभ कैसे हो सकता है? यह कहते हैंचत्ता पावारंभं, समुट्ठिदो वा सुइम्मि चरियम्मि' । जहदि मोहादी ण, लहदि सो अप्पगं सुद्धं ।। ७९ ।। पापारंभको छोड़कर शुभ आचरणमें प्रवृत्त हुआ पुरुष यदि मोह आदिको नहीं छोड़ता है तो वह शुद्ध आत्मा नहीं पाता है ।। अशुभोपयोगको छोड़कर शुभोपयोगमें प्रवृत्त हुआ पुरुष जब मोह राग द्वेष आदिका त्याग करता है, अर्थात् शुद्धोपयोगको प्राप्त होता है तभी कर्ममल कलंकसे रहित शुद्ध आत्मस्वरूपको प्राप्त होता है। अन्यथा नहीं । । ७९ ।। आगे मोहके नाशका उपाय प्रकट करते हैं १. २. 13 जो जाणदि अरहंतं, दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं । सो जादि अप्पाणं, मोहो खलु 'जादि तस्स लयं । ८० ।। जो पुरुष द्रव्य, गुण और पर्यायोंके द्वारा अरहंत भगवानको जानता है वही आत्माको जानता है चरियम्हि, ज. वृ. । -- ७९ वीं गाथाके आगे जयसेन वृत्तिमें निम्नांकित दो गाथाएँ अधिक उपलब्ध हैं. 'तवसंजमप्पसिद्धो सुद्धो सग्गापपग्गमग्गकरो। अमरासुरिंदमहिदो देवो सो लोयसिहरत्थो ।।' 'तं देवदेवदेवं जदिवरवसहं गुरुं तिलोयस्स । पणमंति जे मणुस्सा ते सोक्खं अक्खयं जंति ।।' ज. वृ. । ३. जाइ ज. वृ. ।
SR No.009560
Book TitlePravachana Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages88
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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