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________________ परदव्वं ते अक्खा, णेव सहावोत्ति अप्पणो भणिदा । उवलद्धं तेहि कहं, पच्चक्खं अप्पणो होदि । । ५७ ।। वे इंद्रियाँ चूँकि आत्माका स्वभाव नहीं है इसलिए पर द्रव्य कही गयी हैं, फिर उन इंद्रियोंके द्वारा ग्रहण किया हुआ पदार्थ आत्माके प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है? आगे परोक्ष और प्रत्यक्षका लक्षण प्रकट करते हैं। -3 जं परदो विण्णाणं, तं तु परोक्खत्ति भणिदमत्थेसु । जदि केवलेण णादं, हवदि हि जीवेण पच्चक्खं ।। ५८ ।। पदार्थविषयक जो ज्ञान परकी सहायतासे होता है वह परोक्ष कहलाता है और जो ज्ञान केवल आत्माके द्वारा जाना जाता है वह प्रत्यक्ष कहा जाता है ।। ५८ ।। आगे यही प्रत्यक्ष ज्ञान निश्चय सुख है ऐसा अभेद दिखलाते हैं जादं सयं समत्तं, णाणमणंतत्थवित्थिदं विमलं । रहिदं तु उग्गहादिहि, सुहत्ति एयंतियं भणिदं ।। ५९ ।। जो स्वयं उत्पन्न हुआ है, परिपूर्ण है, अनंत पदार्थोंमें विस्तृत है, निर्मल है और अवग्रह आदि क्रमसे रहित है ऐसा ज्ञान ही निश्चय सुख है ऐसा कहा गया है । । ५९ ।। आगे अनेक पदार्थोंको जानने के कारण केवलज्ञानीको खेद होता होगा इस पूर्व प्रश्नका निराकरण करते हैं जं केवलत्ति णाणं, तं सोक्खं परिणमं च सो चेव । खेदो तस्स ण भणिदो", तम्हा घादी खयं जादा । । ६० ।। जो केवल इस नामवाला ज्ञान है वह सुख है और वही सुख सबके जाननेरूप परिणाम है। उस केवलज्ञानके खेद नहीं कहा गया है। क्योंकि घातिया कर्म क्षयको प्राप्त हुए हैं। खेदके स्थान ज्ञानावरणादि घातिया कर्म हैं। चूँकि केवलज्ञानीके इनका क्षय हो चुकता है अतः उनका केवलज्ञान आकुलता रूप खेदसे सर्वथा रहित होता है । । ६० ।। आगे फिर भी केवलज्ञानको सुखरूप दिखलाते हैं -- णाणं अत्यंतगदं, लोगा लोगेसु वित्थडा दिट्ठी । मणि सव्वं, इटुं पुण जं तं तु' तं लद्धं । । ६१ ।। केवलज्ञानीके ज्ञान पदार्थोंके अंतको प्राप्त है अर्थात् अनंत पदार्थोंको जाननेवाला है, उनकी दृष्टि १. विथडं, ज. वृ. । २. ओग्गहादिहिं, ज. वृ. । ३. एगंतियं, ज. वृ. । ४. भणियं ज. वृ. । ५. भणिओ, ज. वृ. । ६. घादिक्खयं, ज. वृ. । ७. लोयालोयेसु ८. हि ज. वृ. ।
SR No.009560
Book TitlePravachana Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages88
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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