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________________ पांच समितियों का पालन करता । यातायात के किसी साधन, किसी सवारी का उपयोग नहीं करता । इस प्रकार, सभी तरह की आकुलता - पराधीनता से रहित होता जाता है, और आत्मबल बढ़ता जाता है। यहाँ तक पाँचवाँ गुणस्थान है। छठा सातवाँ गुणस्थान जब साधक अभ्यास के द्वारा आत्मानुभव का समय बढ़ाता है, अन्तराल कम करता जाता है, और ऊपर किये गये निरूपण के अनुसार परावलम्बन छोड़ता जाता है, तो आत्मबल की वृद्धि के फलस्वरूप अन्तर्मुहूर्त में एक बार आत्मानुभवन की सामर्थ्य हो जाती है, और सकल संयम की विरोधी जो प्रत्याख्यानावरण कषाय है वह मंद होते-होते अन्ततः उसका अभाव हो जाता है । मात्र संज्वलन नाम की कषाय ही शेष रहती है। तब साधक समस्त परिग्रह के त्याग - पूर्वक मुनिव्रत धारण करता है। अब तक अहिंसा आदि व्रतों का आंशिक पालन अणुव्रतों के रूप में करता था, अब उन्हें पूर्णरूप से, महाव्रतों के रूप में धारण करता है । पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पंचेन्द्रियजय, छह आवश्यक आदि अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करता है। अब इन्हीं के स्वरूप का विचार करते हैं : : (१) अहिंसा महाव्रत : बहिरंग में तो त्रस और स्थावर सभी जीवों की हिंसा का मन-वचन-काय से और कृत- कारित -अनुमोदना द्वारा त्याग होता है और अंतरंग में कषाय की अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण इन तीन जातियों का अभाव होता है। चूंकि राग-द्वेष होना ही हिंसा है और उनका अभाव अहिंसा है, अतः मुनि के कषाय की उक्त तीन जातियों के अभाव - रूप भाव-अहिंसा फलित होती है। (२) सत्य महाव्रत : असत्य वचन बोलने का विकल्प ही नहीं होता है। (३) अचौर्य महाव्रत : बाह्य में बिना दिया गया कुछ भी ग्रहण नहीं करता, और अंतरंग में परपदार्थ के ग्रहण का विकल्प ही नहीं होता है। ( ४ ) ब्रह्मचर्य महाव्रत : स्त्री मात्र की इच्छा का अथवा काम के भाव (५८)
SR No.009559
Book TitleParmatma hone ka Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherDariyaganj Shastra Sabha
Publication Year1990
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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