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________________ सातवीं - ब्रह्मचर्य प्रतिमा : परस्त्री के संसर्ग का त्याग तो पहले ही कर दिया था, अब स्वस्त्री से भी भोगों का त्याग करता है। स्वावलम्बन की भावना चूंकि बढ़ रही है अतः स्वस्त्री का अवलम्बन भी अब नहीं रहा । आठवीं- आरंभत्याग प्रतिमा : पहले न्याययुक्त व्यापार, व्यवसाय करता था, अब व्यापारादिक का भी त्याग कर देता है। अपने खाने-पीने का प्रबन्ध पहले स्वयं कर लेता था, अब अपना खाना बनाना आदि आरम्भरूप क्रियायें भी छोड़ देता है। कोई घर का सदस्य अथवा बाहर का कोई व्यक्ति खाने के लिए बुलाने आ जाता है तो जाकर भोजन ग्रहण कर लेता है। नवीं - परिग्रह त्याग प्रतिमा : परिग्रह का परिमाण तो पहले कर लिया था, अब उसे घटा कर अत्यन्त कम कर देता है। धन, सम्पत्ति, जायदाद आदि से भी सम्बन्ध नहीं रखता । दसवीं - अनुमति - त्याग प्रतिमा : पहले संतान को व्यापारादि सांसारिक कार्यों की सलाह दे देता था, अब वह भी नहीं देता। इस प्रतिमा तक व्रतों का धारक घर में रह सकता है। ग्यारहवीं-उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा : इस प्रतिमा का धारक घर का त्याग कर देता है और साधु- संघ में रहता है। स्वावलम्बन बढ़ गया है, अतः घर का परावलम्बन भी नहीं रहा । वस्त्रों में केवल एक लंगोटी और एक खण्ड - वस्त्र रखता है। भिक्षा से भोजन करता है। सिर और दाढ़ी-मूँछ के बालों का या तो लोंच करता है अथवा उस्तरे आदि के द्वारा भी कतरवा लेता है। जीव रक्षा के लिए मयूर पंखों की पीछी और शौचादि के लिए कमण्डलु रखता है। इस प्रकार के साधक को क्षुल्लक कहा जाता है। परिणामों की विशुद्धि और भी बढ़ जाने पर साधक खण्ड-वस्त्र भी छोड़ देता है और मात्र एक लंगोटी रखता है। यह ऐलक की अवस्था है। यह साधक दिन-भर मन्दिर या किसी सूने स्थान में अथवा किसी मुनि - स‍ में रहकर आत्म-चिंतवन, स्वाध्याय आदि में ही अपना समय लगाता है। - सघ (५७)
SR No.009559
Book TitleParmatma hone ka Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherDariyaganj Shastra Sabha
Publication Year1990
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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