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________________ जबकि दवाई तो रोग को मिटाती है, परहेज रोग को बढ़ने नहीं देता। नीरोगावस्था तभी प्राप्त होती है जब दवाई भी ली जाये और परहेज भी किया जाए-आत्मा का उत्थान भी तभी सम्भव है जब बहिरंग में त्याग और अन्तरंग में आत्मस्वरूप का अनुभव हो। इस बात की चर्चा हम ऊपर भी कर आए हैं-'अध्यात्म और चरणानुयोग : ग्रहण और त्याग की एकता शीर्षक के अन्तर्गत। अब बारह व्रतों में से सर्वप्रथम पांच अणुव्रतों के स्वरूप पर विचार करते हैं : (१) अहिंसाणुव्रत : दूसरे जीवों को अपने समान समझता है। जानता है कि जिस सुई के चुभने से मुझे ऐसी पीड़ा होती है तो दूसरे को भी वैसी ही पीड़ा होती है। अत: मन-वचन-काय से दूसरे के प्रति कोई ऐसा व्यवहार नहीं करता जैसा यदि दूसरा अपने प्रति करे तो अपने को कष्ट हो। जब सभी जीव अपने समान हैं तो दूसरे को दुखी करना वास्तव में अपने को ही दुखी करना है। अहिंसा अणुव्रत में निम्नलिखित बातें गर्भित हैं : (क) संकल्पपूर्वक किसी जीव को नहीं मारता। (ख) वचन का ऐसा प्रयोग नहीं करता जिससे दूसरे को कष्ट हो। (ग) मन से भी किसी का बुरा नहीं सोचता। (घ) आत्महत्या का भाव नहीं करता। (ड) गर्भपातादि करने-कराने को हिंसा समझता है। (च) किसी ऐसी सभा-सोसायटी अथवा आदमियों की संगति नहीं करता जिनका लक्ष्य हिंसा है। (छ) किसी के प्रति अमानुषिक व्यवहार नहीं करता। (ज) मजदूर, रिक्शा-चालक आदि पर लोभ के वशीभूत होकर उनकी शक्ति से ज्यादा वजन नहीं लादता। नौकर, मजदूर आदि को समय पर भोजनादि मिले इसका ध्यान रखता है। () बैल, घोड़ा आदि जानवरों पर उनकी शक्ति से अधिक वजन नहीं लादता। इन जानवरों को समय पर भोजनादि देता है। (५१)
SR No.009559
Book TitleParmatma hone ka Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherDariyaganj Shastra Sabha
Publication Year1990
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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