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________________ और इसका दुख भी पर से, बाहर से है। इसका सम्पूर्ण अस्तित्व बाहर से जुड़ा है, बाहर की ओर उन्मुख है, अत: इसे बहिरात्मा कहा है। यहाँ से आगे की ओर यात्रा की शुरुआत तभी सम्भव है जब यह जीव वस्तुस्वरूप का, स्व-पर के भेद का निर्णय करने की दिशा में उद्यम करता है, यह निश्चय करता है कि कषाय दुखरूप है, इसका अभाव करना है, निज स्वभाव को प्राप्त करना है; और इनके हेतु खोज करता है कि स्वभाव को प्राप्त करने वाला, कषाय का नाश करने वाला कौन है ? अब इसके लिये वही परमात्म-देव है जो कषाय से रहित है—जिसने स्वभाव को प्राप्त किया है; वही पूजने योग्य है; वही साध्य है। वही शास्त्र है जो कषाय के नाश और स्वभाव की प्राप्ति का उपदेश दे; और वे ही गुरु हैं जो इस कार्य में लगे हुए हैं। इनके अतिरिक्त किन्हीं ऐसे तथाकथित देव, शास्त्र, गुरु की संगति, पूजा आदि नहीं करता जिनसे कषाय की पुष्टि होती हो। इसके साथ ही बहिरंग में जीव-हिंसा और अंतरंग में तीव्र कषाय, इन दोनों के अवलम्बनरूप जो माँस, मदिरादिक हैं, उनका त्याग करता है। इस प्रकार सही देव-शास्त्र-गुरु का निर्णय करता है और उनके अवलम्बन से अपने स्वरूप को जानने का उद्यम करता है। यह पुरुषार्थ कोई भी व्यक्ति-स्त्री, पुरुष, वृद्ध, युवा, यहाँ तक कि मन-सहित पशु-पक्षी भी-कर सकता है। चौथा गुणस्थान सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के माध्यम से अपने स्वरूप को स्पर्श करने का, अनुभव करने का, पुरुषार्थ करते हुए जब यह जीव निर्णय करता है कि मैं शरीर से भिन्न एक अकेला चेतन हूँ, और मेरी पर्याय में होने वाले रागादि भाव, जिनके कारण मैं दुखी हूँ, मेरे स्वभाव नहीं अपितु विकारी भाव हैं, अनित्य हैं, नाशवान हैं-जब यह शरीर और रागादि से भिन्न अपने ज्ञातास्वरूप को देख पाता है तो पहले से चौथे, अविरत सम्यग्दृष्टि नामक गुणस्थान में आता है। रागादि से भिन्न अपनी सत्ता का अब यद्यपि निर्णय हो गया है तथापि राग-द्वेष का नाश नहीं कर पा रहा है। (४६)
SR No.009559
Book TitleParmatma hone ka Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherDariyaganj Shastra Sabha
Publication Year1990
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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