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________________ जीवात्मा की परमात्मा तक यात्रा जैसा कि ऊपर विचार कर आये हैं, धर्म के लिये—निज ज्ञान-आनन्दस्वभाव की प्राप्ति के लिये-कषाय का नाश करना जरूरी है। कषाय/रागद्वेष की उत्पत्ति का कारण अपनी अज्ञानता है, शरीर और कर्मफल में अपनेपने की मिथ्या मान्यता है। अपने स्वरूप को यह जीव जाने तो इसका शरीरादि में अपनापना छूटे, शरीरादि में अपनापना छूटे तो कषाय पैदा होने का मूल कारण दूर हो, और कषाय पैदा होने का मूल कारण दूर हो तो उसके बाद, राग-द्वेष के जो पूर्व संस्कार शेष रह गए हैं उनके क्रमश: अभाव का उपाय बने, और इस प्रकार जितनी-जितनी कषाय/राग-द्वेष घटता जाये उतनी-उतनी शुद्धता आती जाये। चौदह गुणस्थान कषाय के माप के लिए चौदह गुणस्थानों का निरूपण आगम में किया गया है। जैसे थर्मामीटर के द्वारा बुखार का माप किया जाता है, वैसे ही गुणस्थानों के द्वारा मोहरूपी बुखार का माप होता है। जैसे-जैसे कषाय में कमी होती है, बाह्य में परावलम्बन घटता है और अंतरंग में स्वरूप से निकटता बढ़ती है-आत्मा उन्नति के मार्ग पर अग्रसर होती है। पहला गुणस्थान जब तक यह जीव कर्म और कर्मफल में-शरीर तथा राग-द्वेष में-अपनापना स्थापित किये हुए है तब तक यह पहले गुणस्थान में ही स्थित है। यहाँ पर इसके एक शरीर के प्रति ही राग नहीं है, परन्तु संभावित सभी शरीरों के प्रति अपनेपने का राग है। इसी प्रकार, शरीर-संबंधी एक वस्तु के प्रति ही राग-द्वेष नहीं है बल्कि संभावित सभी वस्तुओं के प्रति इसके अभिप्राय में राग-द्वेष पड़ा है। शरीर के होने से इसका होना है और शरीर के नाश से इसका मरण है। इसका सुख भी घर से, बाहरी पदार्थों से है
SR No.009559
Book TitleParmatma hone ka Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherDariyaganj Shastra Sabha
Publication Year1990
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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