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________________ हुआ । । १८ ।। पंचास्तिकाय सत्का विनाश और असत्की उत्पत्ति नहीं होती एवं सदो विणासो, असदो जीवस्स णत्थि उप्पादो। तावदिओ जीवाणं, देवो मणुसो त्ति गदिणामो । ।१९।। 1 इस प्रकार सत् रूप जीवका न नाश होता है और न असत्रूप जीवका उत्पाद ही । जीवों में जो देव अथवा मनुष्यका व्यवहार होता है वह सब गति नामकर्मके उदयसे होनेवाला विकार है । । १९ ।। ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मोंके अभावसे सिद्ध पर्यायकी प्राप्ति होती है णाणावरणादीया, भावा जीवेण सुट्टु अणुबद्धा । तेसिमभावं किच्चा, अभूदपुव्वो हवदि सिद्धो ।। २० ।। इस संसारी जीवने अनादिकालसे ज्ञानावरणादि कर्मपर्यायोंका अतिशय बंध कर रखा है अतः उनका अभाव - क्षय करके ही यह जीव अभूतपूर्व सिद्धपर्यायको प्राप्त हो सकता है ।। २० ।। भाव, अभाव, भावाभाव और अभावभावका उल्लेख एवं भावमभाव, भावाभावं अभावभावं च । गुज्जहिं सहिद, संसरमाणो कुणदि जीवो । । २१ । । इस प्रकार गुण और पर्यायोंके साथ पाँच परावर्तनरूप संसारमें भ्रमण करता हुआ यह जीव कभी भावको करता है -- देवादि नवीन पर्यायको धारण करता है, कभी अभावको करता है -- मनुष्यादि पूर्व पर्यायका नाश करता है, कभी भावका अभाव करता है -- वर्तमान देवादि पर्यायका नाश करता है और कभी अभावका भाव करता है -- मनुष्यादि अभावरूप पर्यायका उत्पाद करता है । । २१ ।। १. अस्तिकायोंके नाम जीवा पुग्गलकाया, आयासं अत्थिकाइया सेसा । अमया' अत्थित्तमया, कारणभूदा हि लोगस्स ।। २२ ।। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पाँच द्रव्य अस्तिस्वरूप तथा बहुप्रदेशी होने के कारण अस्तिकाय कहलाते हैं। ये अकृत्रिम हैं, शाश्वत हैं और लोकके कारणभूत हैं ।। २२ ।। कालद्रव्यके अस्तित्वकी सिद्धि सब्भावसभावाणं, जीवाणं तह य पोग्गलाणं च । परियट्टणसंभूदो, कालो णियमेण पण्णत्तो ।। २३ ।। अमया अकृत्रिमा न केनापि पुरुषविशेषेण कृताः । । -- ता. वृ ।
SR No.009558
Book TitlePanchastikaya
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages39
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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