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________________ IV दूसरी बार वाली यह स्वाध्याय केवल १५-१६ महिने में पूरी हो गई। सन्दर्भोका सग्रह अबकी बार अपनी सुविधाकी दृष्टिसे रजिस्ट्रोमे न करके खुले परचो पर किया और शीर्षको तथा उपशीर्षकोमे विभाजित उन परचोको वर्णानुक्रमसे सजाते रहे। सन् १९५९ मे जब यह स्वाध्याय पूरी हुई तो परचो का यह विशाल ढेर आपके पास लगभग ४० किलो प्रमाण हो गया। __ परचोके इस विशाल सग्रहको व्यवस्थित करनेके लिए सन् १९५९ मे आपने इसे एक सागोपाग ग्रन्थके रूपमे लिपिवद्ध करना प्रारम्भ कर दिया, और १९६० मे 'जैनेन्द्र प्रमाण कोष' के नामसे आठ मोटे-मोटे खण्डो की रचना आपने कर डाली, जिसका चित्र शान्ति-पथ-प्रदर्शनके प्रथम तथा द्वितीय सस्करणोमे अकित हुआ दिखाई देता है। ___ स्व० १० रूप चन्दजी गार्गीयने अप्रैल १९६० मे 'जैनेन्द्र प्रमाण कोष' की यह भारी लिपि, प्रकाशन की इच्छासे देहली ले जाकर, भारतीय ज्ञानपीठके मन्त्री श्री लक्ष्मीचन्द जी को दिखाई। उससे प्रभावित होकर उन्होंने तुरत उस प्रकाशनके लिए मागा। परन्तु क्योकि यह कृति वर्णी जी ने प्रकाशनकी दृष्टिसे नही लिखी थी और इसमे बहुत सारी कमियें थी, इसलिए उन्होने इसी हालतमे इसे देना स्वीकार नहीं किया, और पण्डित जी के आग्रहसे वे अनेक सशोधनो तथा परिवर्धनोसे युक्त करके इसका रूपान्तरण करने लगे। परन्तु अपनी ध्यान समाधिकी शान्त साधनामे विघ्न समझकर मार्च १९६२ मे आपने इस कामको बीचमे ही छोडकर स्थगित कर दिया। पण्डित जी की प्रेरणायें बराबर चलती रही और सन् १९६४ मे आपको पुन. यह काम अपने हाथमे लेना पडा। पहले वाले रूपान्तरण से आप अब सन्तुष्ट नही थे, इसलिए इसका त्याग करके
SR No.009557
Book TitlePadartha Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1982
Total Pages277
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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