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________________ २३२ पदार्य विज्ञान अनन्त है। क्षेत्रकी अपेक्षा विचार करनेपर सामान्य रूपसे आकाश सर्वव्यापक है, परन्तु विशेष रूपसे असख्यातप्रदेगी लोकाकाश मनुष्याकार है। इसके अतिरिक्त जिस प्रकार घटाकाश अर्थात् घडे के बीचका आकाश घडेके आकारका है, जिस प्रकार मठाकाश (मन्दिरके भीतरका आकाश), मुखाकाश (मुखके भीतरका आकाश) मठ नथा मुख आदिके आकारके है, इसी प्रकार वह शरीराकारकी अपेक्षा भिन्न-भिन्न सीमित आकारोवाला भी है। __कालकी अपेक्षा विचार करनेपर सामान्य रूपसे आकाश नित्य है, परन्तु विशेष रूपसे लोकके पदार्थोमे परिवर्तन होते रहनेके कारण लोकमे भी परिवर्तन या अनित्यता देखनेका व्यवहार चलता ही है। भावकी अपेक्षा विचार करने पर सामान्य रूपसे आकाशमे एक अवगाहनत्व गुण है जो प्रत्येक पदार्थको अवकाश देता है, परन्तु विशेष रूपसे देखनेपर सूक्ष्म पदार्थों को ही अन्य पदार्थोमे रहनेके लिए अवकाश देता है स्थूल पदार्थोंको नही। १५ आकाशको जाननेका प्रयोजन इस सर्वव्यापी अखण्ड आकाशके एक-एक प्रदेशपर अनन्तानन्त पदार्थ ठसाठस भरे पडे हैं, और वहां रहते हुए अपना नाटक खेल रहे हैं। स्थूल दृष्टिमे स्थूल सृष्टि तो आती है परन्तु आकाशप्रदेशकी यह सूक्ष्म सृष्टि नही आती। सैद्धान्तिक दृष्टि द्वारा आप यदि इस सूक्ष्म सृष्टिको भी देख सकें तो इस स्थूल जगत्का कुछ भी महत्व आपकी दृष्टिमे रह न जाय । आपकी सब वासनाएँ तथा कामनाएँ स्वतः शान्त हो जायें और आपका जीवन प्रकाशित हो उठे । आप यदि विश्वको सकुचित दृष्टि न देखकर व्यापक दृष्टिसे देखने लगें तो आपको घर, नगर, देश, पृथ्वी आदि भी परमाणुवत् भासने लगें। सकल लोकके समान इन सबका कोई मूल्य न रह जाय । तब आप सर्वज्ञ हो जायें। आपका जीवन खिल उठे। यही है आकाशकी व्यापकताको जानने का प्रयोजन ।
SR No.009557
Book TitlePadartha Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1982
Total Pages277
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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