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________________ ९ आकाश द्रव्य २१५ इसपर-से यह भी न समझ लेना कि लोकके चारो तरफ कोई दीवार बनी हुई है, जिसके भीतर-भीतर तो लोक है और उससे बाहर अलोक । जिस प्रकार किसी राज्यकी सीमा किसी दीवारके द्वारा निर्धारित नही की जाती बल्कि मान ली जाती है, उसी प्रकार लोककी सीमा किसी दीवार द्वारा निर्धारित नही की जाती बल्कि मान ली जाती है। इस समस्त पृथ्वी-मण्डलके जितने भागमे उस राजाकी आज्ञा मानी जाती है, वही उसके राज्यकी सीमा है। इसी प्रकार असीम आकाशके जितने भागोमे जीव तथा पुद्गल ये दोनो पदार्थ स्वतन्त्रतासे गमनागमन कर सकें तथा अनेको रूपोमे प्रकट होकर अपना नाटक दिखा सकें बस वही लोककी सीमा है। लोकको जीव तथा पुद्गलके नृत्यका रगमच समझिए। इस सीमाको उल्लघन करके जानेका इन्हे अधिकार नही, इसीसे इतनी सीमाके बाहरका शेष सर्व स्थान अलोक कहलाता है । साधारण रूपसे देखनेपर तो यह लोक अर्थात् जीव पुद्गलका रगमच बहुत बडा तथा असीम दिखाई देता है, परन्तु वास्तवमे ऐसा नही है। किसी पदार्थको निकटसे अर्थात् सकुचित दृष्टिसे देखनेपर ही वह बडा दिखाई दिया करता है। महलमे रहनेवालेको महल बहुत बडा दिखता है, पर नगरमे रहनेवालेके लिए वह एक छोटी-सी चीज़ है। इसी प्रकार नगरमे रहनेवालेके लिए नगर बहुत बडा दीखता है पर देश या राष्ट्रमे रहनेवालोको वह छोटा प्रतीत होता है। देशमे रहनेवालेके लिए देश बड़ा है, पर पृथिवीके भूगोलमे वह भी क्षुद्र मात्र-सा है। यह समस्त पृथिवी भी यदि ऊपर आकाशमे जाकर दूरसे देखी जाये तो चन्द्रमाकी भांति एक गोला सी दिखती है। पृथिवी, चन्द्र, सूर्य आदि असत्य ऐसे-ऐसे गोले जो लोकमे भरे पड़े हैं, निकटसे देखनेपर ये बडे हैं पर दुरसे देखनेपर छोटे । इसी प्रकार व्यापक दृष्टिसे देखनेपर असख्यात पृथिवियो तथा
SR No.009557
Book TitlePadartha Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1982
Total Pages277
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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