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________________ * २१४ पदार्थ विज्ञान भी यह गुण नही बल्कि पर्याय है, जो उसमे दो पदार्थों के परस्पर टकरानेसे उत्पन्न हो जाती है और कुछ देर पश्चात् विनष्ट हो जाती है । शब्दको एक स्थानसे दूसरे स्थान तक ले जानेवाला वायु है, आकाश नही। ६ लोकालोक विभाग यद्यपि आकाश व्यापक है, वह सर्वत्र है, जहां वुद्धि नही पहुँच सकती वहाँ भी वह है. परन्तु इसका यह अर्थ नही कि यह दृष्ट जगत् भी सर्वत्र है, अर्थात् यह भी आकाशवत् व्यापक है । दृष्ट जगत्की सीमा है । यह केवल इस आकाशके मध्य मात्र कुछ स्थानमे रहता है। बस आकाशके जितने मात्र भागमे यह सब दृष्ट जगत् पाया जाता है उसे लोकाकाश कहते हैं । उसके अतिरिक्त सर्व दिशाओमे व्यापक रूपसे फैले हुए शेष असीम भागको अलोकाकाश कहते हैं। 'लुक'का अर्थ देखना है। जितने स्थानमे यह सब कुछ पसारा दिखाई दे वह लोक और जहाँ यह कुछ दिखाई न दे वह अलोक जानना। 'लोक तथा अलोक' यद्यपि इस प्रकार आकाशके दो भाग कर दिये गये, पर इसका यह अर्थ नही कि वह इससे खण्डित हो गया है। वह तो ज्योका त्यो है, क्योकि यह विभाग केवल काल्पनिक है । जैसे घड़ीके भीतरकी पोलाहटको हम घटाकाश कहते हैं, और उससे बाहर सर्वत्र फैले हुए इस खाली स्थान रूप असीम आकाशको केवल आकाश कहते हैं, परन्तु ऐसा विभाग करनेसे वह टूट नही जाता इसी प्रकार ऊपरके सम्बन्धमे भी जानना। असीम आकाशमे यह लोक एक घटकी भांति रखा हुआ कल्पना कर लो। तब उस सीमाके भीतर-भीतरवाले आकाशका नाम लोक है और उससे बाहरके आकाशका नाम अलोक ।
SR No.009557
Book TitlePadartha Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1982
Total Pages277
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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