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________________ ९ आकाश द्रव्य २०७ आकाशकी नही, वह वायु जो कि आकाशमे ही व्याप्त है। यह जो सुगन्ध-दुर्गन्ध आती प्रतीत होती है वह भी किन्ही पुद्गल स्कन्धोकी है, जो विष्टा या पुष्पादिपर-से वायुके साथ ही उड़कर हमारे नाक तक आ पहुंची है। आखोसे जो नीला-नीला दोखता है यह आकाश नही बल्कि उन क्षुद्र अणुओका रग समझो जो कि इस वायु मण्डलमे नित्य तैरते हैं और सूयकी किरणोको प्राप्त करके इस रगमे रँग जाते हैं। शब्द जो कानोंसे सुनाई देता है वह आकाशका कोई अश या गुण नही है, परन्तु अनेक पुद्गल परमाणुओंके टकरानेसे स्वयं उनमे ही उत्पन्न होता है, और वायुमण्डलमे एक कम्पन-विशेष उत्पन्न कर देता है। वायुका वह कम्पन ही कर्ण प्रदेशोको प्राप्त होनेपर शब्द रूपमे प्रतीत होता है। वैदिक मान्यता के अनुसार शब्दको यद्यपि आकाशका गुण माना गया है परन्तु उनकी मान्यता ठीक नहीं है, क्योकि शब्द इन्द्रिय ग्राह्य होनेके कारण मूर्तिक है, जबकि आकाश निर्लेप तथा अमूर्तिक है। अमूर्तिक पदार्थका कोई भी अग या गुण मूर्तिक या इन्द्रिय ग्राह्य नही हो सकता । इस बातको आगे और स्पष्ट किया जायेगा। यहाँ केवल इतना ही समझ लें कि आकश पदार्थ बिलकुल अमूर्तिक है। जो कुछ भी इन्द्रियोसे दिखाई देता है या किसी भी प्रकार जाना जाता है, वह सब पुद्गल है । यह जो अपने चारो ओर, दायें-बायें, आगे-पीछे, ऊपर-नीचे, सर्वत्र जहा तक भी दृष्टि जाती है, खाली जगह (vaccum) दिखाई देता है वही आकाश है। अँगरेजीमे इस ही स्पेस (space) कहते हैं। (sky) और स्पेस (space) मे अन्तर है। sky तो उस नील गगनका नाम है जिसे कि पहले पुद्गल बता दिया गया है । वास्तव मे स्पेस (space) ही आकाश है । खाली जगहको आकाश कहते हैं। भले ही इसमे वायु होनेके
SR No.009557
Book TitlePadartha Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1982
Total Pages277
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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