SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६ जीवके धर्म तथा गुण १५७ होता है, ऐसा बताया जा चुका है, और इसी प्रकार मन पर्यय ज्ञानके पूर्व भी कोई पृथक् दर्शन नही हुआ करता । वह भी मनो मतिज्ञानपूर्वक ही हुआ करता है । शेष रहे तीन ज्ञान - मति, अवधि तथा केवल | बस इनके साथ सम्बन्धित होनेसे दर्शनके भी तीन भेद किये जा सकते है -- मतिदर्शन, अवधिदर्शन तथा केवलदर्शन | 'मतिदर्शन' ऐसा नाम आगममे नही आता, क्योकि इसके भेद - प्रभेदोकी अपेक्षा इसका दर्शन भी अनेक भेदरूप समझा जा सकता है । मतिज्ञान क्योकि पाँच इन्द्रियो और छठे मनसे होता है इसलिए उस-उस इन्द्रियके ज्ञानसे पूर्व होनेवाले दर्शन भी छह प्रकारके होने चाहिए, स्पर्शज्ञानसे पूर्ववाला स्पर्शन दर्शन और रसना से पूर्ववाला रसना दर्शन इत्यादि । परन्तु श्रोता व पाठकके सुभीते के लिए मति दर्शनके इतने भेद न करके केवल दो ही भेद कर दिये गये है-चक्षुदर्शन तथा अचक्षु दर्शन । चक्षु इन्द्रिय अर्थात् आँख से देखने के पूर्व जो अन्तरग दर्शन होता है वह चक्षुदर्शन है, और शेष चार इन्द्रियों तथा मन द्वारा जाननेसे पूर्व जो दर्शन होता है वह अचक्षुदर्शन कहलाता है । यहाँ छहो भेदोको मिलाकर एक मतिदर्शन कहा जा सकता था, परन्तु चक्षु इन्द्रियसे देखना और दर्शनसे देखना इन दोनो प्रकारके देखने मे जो अतरह उसे दर्शाने के लिए चक्षुदर्शनको पृथक् कर दिया गया । चक्षु इन्द्रियसे देखना चक्षु इन्द्रिय सम्बन्धी मतिज्ञान ह, परन्तु इससे पहले अन्तरंग प्रकाशका जो दौड़कर चक्षु इन्द्रिय के प्रति आना है वह चक्षुदर्शन है । शेष इन्द्रियाँ अचक्षु है अर्थात् चक्षु नही हैं, इसलिए उन सबसे पूर्व होनेवाले दर्शनको अचक्षुदर्शन कहना युक्त ही है । इसी प्रकार अवधिज्ञानसे पूर्व होनेवाला दर्शन अवधिदर्शन कहलाता है | श्रुत तथा मन पर्ययसे पूर्व दर्शनकी आवश्यकता
SR No.009557
Book TitlePadartha Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1982
Total Pages277
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy