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________________ १५६ पदार्थ विज्ञान जिसमे समस्त विश्व एक साथ प्रतिभासित हो उठता है। यह मात्र उन महान् योगीश्वरोको ही होता है जो कि साधना-विशेप द्वारा अन्त करण तथा शरीरके बन्धनोसे मुक्त होकर केवल चेतनमात्र रह जाते है। पहले चार ज्ञान लौकिक हैं और यह ज्ञान अलीकिक है। १७ क्रम तथा प्रक्कम ज्ञान ___इन पांचो ज्ञानोमे पहले चार क्रमवर्ती ज्ञान हैं और अन्तिम जो केवलज्ञान है वह अक्रमवर्ती है। पहले एक पदार्थको जाना, फिर उसे छोडकर दूसरेको जाना, उसे छोडकर तीसरेको जाना यह क्मवर्ती ज्ञान कहलाता है । हमारा सबका ज्ञान क्रमवर्ती है । अवधि तथा मन पर्यय ज्ञान भी क्रमवर्ती है। परन्तु केवलज्ञान अनन्त प्रकाशज है, इसलिए उसमे इस प्रकार अटक-अटककर आगे-पीछे थोडा-थोडा जाननेकी आवश्यकता नही है। वह समस्त विश्वको एक साथ पी जाता है । अत केवलज्ञान अक्रमवर्ती है । १८ दर्शनके भेद ज्ञानकी ही भांति दर्शन भी दो प्रकारका है-लौकिक तथा अलौकिक । लौकिक ज्ञानो से सम्बन्ध रखनेवाला लौकिक और अलौकिकसे सम्बन्ध रखने वाला अलौकिक है। पहले लक्षण करते हुए यह बताया गया है कि ज्ञान से पूर्व दर्शन हुआ करता है, क्योकि जबतक आपका उपयोग या प्रकाश पहली इन्द्रियसे हटकर दूसरी इन्द्रियपर नही जायेगा तबतक वह दूसरी इन्द्रिय निस्तेज रहेगी और खुली हुई होते हुए भी जाननेका काम न कर सकेगी। इसलिए: जितने प्रकारके ज्ञान है उतने प्रकारके ही उनसे पूर्व होनेवाले दर्शन होने चाहिए । परन्तु वास्तवमे ऐसा नहीं हैं। श्रुतज्ञानसे पूर्व दर्शन नहीं होता, क्योकि 'वह मति ज्ञानपूर्वक
SR No.009557
Book TitlePadartha Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1982
Total Pages277
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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