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________________ १५२ पदार्थ विज्ञान है, अथवा किसी कुटे या पिसे हुए चूर्णको चखकर यह जान जाना कि इसमे अमुक-अमुक मसाले पडे हैं । इन्द्रियज मतिज्ञान हो जानेके पश्चात् उत्पन्न होनेके कारण यह भी श्रुतज्ञानमे गर्भित है । श्रावण श्रुतज्ञान शब्द सुनकर या पढकर होता है। किसी भी शब्दको पढकर या सुनकर उसके वाच्यार्थका ज्ञान हो जाता है, जैसे कि 'पुस्तक' ऐसा शब्द सुनकर या पढकर आप स्वयं समझ जाते है कि बोलने या लिखनेवाला इस 'पुस्तक' पदार्थकी ओर संकेत कर रहा है । पुस्तक तो दूसरे कमरेमे रखी थी जिसे उस समय न आँखने देखा था और न कानने सुना था, फिर भी 'पुस्तक ' शब्द द्वारा उसी पुस्तक पदार्थका ज्ञान हुआ । बस, यही श्रावण श्रुतज्ञान अर्थात् शब्दके द्वारा होनेवाला श्रुतज्ञान है । यह केवल मनवालोको ही होता है । यह भी मति ज्ञानपूर्वक ही होता है, क्योकि शब्दको कान द्वारा सुनना मतिज्ञान है और तत्पश्चात् उस पदार्थको जान लेना श्रुतज्ञान है । "तुम्हारी बात ठीक है, अथवा ठीक नही है, क्योकि यदि ऐसा मान लें तो यह बाधा आती है, यह दोष आता है" इस प्रकारके युक्तिपूर्ण ज्ञानको तर्कज्ञान कहते हैं, जो केवल मन द्वारा ही होना सम्भव है । यह भी मति - ज्ञानपूर्वक ही होता है, क्योंकि कान द्वारा किसीका पक्ष सुनकर तत्पश्चात् उसपर युक्तियाँ लगाना श्रुतज्ञान है । किसी भी पदार्थको देख या सुनकर अथवा जानकर या स्वत स्मरण हो जाने पर तुरत ही प्रायः विकल्पकी धारा चल निकलती है जैसे - 'चीन' ऐसा शब्द सुनते ही, "अरे ! बड़ा दुष्ट है तथा धोखेबाज है, चीनदेश । अब क्या होगा । युद्धमे यदि भारत हार गया तो गज़ब हो जायेगा । अरे । चीनी आकर हमारे घरोको लूटेंगे, स्त्रियोका शोल भग करेंगे। मे कैसे देखूंगा, प्रभु मुझको उससे पहले ही संसारसे उठा लें" इत्यादि अनेक प्रकारकी
SR No.009557
Book TitlePadartha Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1982
Total Pages277
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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