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________________ १५० पदार्थ सिज्ञान होता है वह सब मतिज्ञान कहलाता है। अत. जितनी इन्द्रियाँ हैं उतने ही प्रकारका यह ज्ञान होता है । जिस जीवके पास हीन या अधिक जितनी इन्द्रियाँ होती हैं उसको उस-उस इन्द्रिय सम्बन्धी ही मतिज्ञान होता है, शेष इन्द्रियो सम्बन्धी नही होता, ऐसा समझना। पाँचो इन्द्रियाँ अपने-अपने निश्चित विषयको ही जानती है, जैसे कि आँख रूपको ही जान सकती है और जिह्वा स्वादको हो । एक इन्द्रिय दूसरी इन्द्रियके विषयको नही जान सकती । परन्तु मनका कोई निश्चित विषय नही है। वह प्रत्येक इन्द्रियके विषय सम्बन्धी विचारणा, तर्क तथा सकल्प विकल्प कर सकता है। अत. मन सम्बन्धी मतिज्ञान अत्यन्त विस्तृत है, और वही प्रमुख है। पहले किसी पदार्थको इन्द्रिय द्वारा जान लिया गया हो अथवा मन द्वारा विचारकर निर्णय कर लिया गया हो, तब वह स्मृतिका विषय बन जाया करता है। अर्थात् तत्पश्चात् पदार्थ न होने पर भी मन जब भी चाहे उस विषयका स्मरण कर सकता है। इसे स्मृतिज्ञान कहते हैं। यह भी मन सम्बन्धी मतिज्ञानका एक भेद है। किसी पदार्थको देखकर 'यह तो वही है जो पहले देखा था', या 'यह तो वैसा ही है जैसा कि पहले देखा था' इस प्रकारका जो ज्ञान होता है वह प्रत्यभिज्ञान कहलाता है। यह भी मनो-मतिज्ञान का ही एक भेद है। इस प्रकार मतिज्ञानके अनेको भेद हैं, जो सर्व परिचित हैं। यह ज्ञान एकेन्द्रियसे सज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त सर्व ही छोटे-बड़े ससारी जीवोको अपनी-अपनी प्राप्त इन्द्रियोंके अनुसार हीनाधिक रूपमे यथायोग्य होता है। पशु-पक्षियो तथा मनुष्योको ही नहीं देव तथा नारकियोको भी होता है। १३. श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होनेवाला तत्पश्चाद्वर्ती ज्ञान "श्रुतज्ञान'
SR No.009557
Book TitlePadartha Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1982
Total Pages277
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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