SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४८ पदार्थ विज्ञान ही रहती है । कोई कितना भी समझाये कि सर्प तो बहुत अच्छा तथा सुन्दर होता है परन्तु आप उसकी बात मानने को तैयार नही । इसी आन्तरिक दृढताका नाम श्रद्धा है । श्रद्धासे ही रुचि या अरुचि प्रकट होती है । जो वस्तु इष्ट मान ली गयी है वह सदा ही प्राप्त करनेकी इच्छा बनी रहती है जैसे कि धन कमानेकी इच्छा । इसे रुचि कहते हैं । यदि धनकी इष्टता सम्बन्धी श्रद्धा न हो तो यह रुचि नही हो सकती । रुचिका भी यह अर्थ नही कि आप वह काम हर समय करते रहे । परन्तु यह तो केवल एक भाव विशेष है जो अन्दरमे बैठा रहता है और अन्दर ही अन्दर चुटकियाँ भरा करता है, जैसे कि यहाँ पुस्तक पढते या उपदेश सुनते हुए यद्यपि आप धन कमानेका कोई काम नही कर रहे है, परन्तु उसकी रुचि तो आपको है ही । इस प्रकार श्रद्धा व रुचि एक दूसरेके पूरक है | श्रद्धा आन्तरिक दृढताको कहते हैं और रुचि उस आन्तरिक प्रेरणाको कहते है जिसके कारण कि व्यक्ति वस्तु विशेषको प्राप्त करनेके प्रति उद्यम - शील बना रहता है । अनुभव और श्रद्धाका भी परस्पर सम्बन्ध है - जिस पदार्थका अनुभव सुखरूप हुआ है उसके सम्बन्ध मे ही इष्टपनेकी श्रद्धा होती है और उसीको प्राप्त करनेकी रुचि होती है । जिस पदार्थका अनुभव दुखरूप हुआ है उसके सन्बन्धमे अनिष्टपनेकी श्रद्धा होती है, और उससे किसी प्रकार भी बचे रहनेकी रुचि या प्रेरणा होती है । इस प्रकार अनुभव, श्रद्धा तथा रुचि ये कुछ मन्तरिल सूक्ष्म भाव हैं जो प्रत्येक जीवमे पाये जाते हैं । & संकोच - विस्तार जीव- सामान्यका परिचय देते हुए यह बात अच्छी तरह बतायी जा चुकी है कि जीव छोटा बड़ा जो भी शरीर धारण करता है, वह
SR No.009557
Book TitlePadartha Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1982
Total Pages277
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy