SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६ जीव के धर्म तथा गुण १४७ विषाद हुआ करता है। फिर भले ही वह विषय नेत्र इन्द्रियसे देखनेका हो या जिह्वासे चखनेका। जैसे कि वनकी शोभा देखनेपर यदि मन सब तरफसे हटकर केवल उसे ही देखनेमे लीन हो जाये तो आनन्द आता है, परन्तु यदि किसी कार्य-विशेषवश किसी गाँव जाते हुए उसी वनमेसे आपको गुजरना पडे तब वह वन देखकर जाना तो जाता है परन्तु मन उसमे लय न होनेके कारण आनन्द नही आता। इसी प्रकार भोजन करते हुए यदि मन उसमे ही लय हो जाये तो आनन्द आता है, परन्तु यदि अन्य चिन्ताओ व सकल्प-विकल्पोमे उलझा रहे तो आनन्द नहीं आता, साधारण-सा खट्टा-मीठा स्वाद ही जाननेमे आता है। इसी प्रकार सर्वत्र जानना। जाननेके अतिरिक्त जीवमे यह अनुभव करनेका एक पृथक् गुण है जिसका सम्बन्ध विषयके साथ तन्मय होकर दुखी या सुखी होनेसे है। ८. श्रद्धा और रुचि 'यह बात जैसो जानी वैसे ही है, अन्य प्रकार नही" ऐसी आन्तरिक दृढताको श्रद्धा या विश्वास कहते हैं। जानने व श्रद्धा करनेमे अन्तर है। श्रद्धाका सम्बन्ध हित अहितसे होता है। इन्द्रियसे केवल इतना जाना जा सकता है कि यह पदार्थ रूप-रग आदि वाला है, परन्तु 'यह मेरे लिए इष्ट है' यह बात कौन बताता है ? सर्प काला तथा लम्बा है यह तो ऑखने बता दिया, परन्तु 'यह अनिष्ट है, यहाँसे दूर हट जाओ' यह प्रेरणा किसने को? बस उसीका नाम श्रद्धा है। श्रद्धा उस आन्तरिक प्रेरणाका नाम है जो कि व्यक्तिको किसी विषयकी तरफ तत्परतासे उन्मुख होनेके लिए या वहाँसे हटनेके लिए अन्दर वैठी हुई कहती रहती है। श्रद्धाका यह अर्थ नहीं कि वह विषय आपके सामने हो तभी वह कुछ कहे । नही, विषय हो अथवा न हो यदि एक बार वह जान लिया गया है तो उसके सम्बन्धमे इट-अनिष्टकी बुद्धि अन्दरमे बैठी
SR No.009557
Book TitlePadartha Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1982
Total Pages277
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy