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________________ ५ जीव पदार्थ विशेष १३३ तथा उसको कोई न कोई सख्या भी अवश्य होती है। क्षेत्र उसके प्रदेशो या आकारोको कहते हैं क्योकि वे उस आकारका स्थान घेरते हैं। कालके अन्तर्गत उसकी नित्यता व अनित्यता आती है और भावके अन्तर्गत उसके सामान्य व विशेष गुण विचारे जाते हैं। जीव पदार्थको द्रव्यकी अपेक्षा विचार करनेपर सामान्य रूपसे तो वह चित्प्रकाश मात्र एक स्वभावी होनेके कारण एक सख्यावाला है, परन्तु विशेष रूपसे उस स्वभावको धारण करनेवाले प्रदेशात्मक जीव-द्रव्य लोकमे अनन्तानन्त हैं। क्षेत्रको अपेक्षा विचार करनेपर सामान्य रूपसे वह चित्प्रकाश मात्र एक स्वभावी होनेके कारण सर्वव्यापक है, परन्तु प्रदेशात्मक जीव-द्रव्यका क्षेत्र सीमित है। क्योकि प्रकाश तो ज्ञानका है और वह सदा व्यापक ही होता है, परन्तु प्रकाशक या ज्ञानवान् कोई आकारवान् द्रव्य है जो सीमित है। जैसे 'चक्षुरिन्द्रिय कितनी बडी है, ऐसा प्रश्न करनेपर यह उत्तर आता है कि जितनी-जितनी दूर तक देख सके चक्षु उतनी बड़ी है, परन्तु चक्षुमे पीडा हो जाये तो उसका इलाज करनेके लिए 'चक्षु कितनी बडी', इसके उत्तरमे चक्षु केवल एक इच मात्र है। इसी प्रकार जाननेकी अपेक्षा तो चित् सर्व विश्वको जाननेमे समर्थ होनेके कारण व्यापक है, परन्तु सुख-दुखके या आनन्दके अनुभवकी अपेक्षा केवल शरीराकार है, क्योकि इनका अनुभव उतने मात्र ही क्षेत्रमें होता है। इस प्रकार उसका स्वभाव सर्व व्यापक है, परन्तु प्रदेशात्मक जीव-द्रव्य सीमित है। उसमे भी सामान्य जीव द्रव्य यद्यपि लोक प्रमाण असख्यात प्रदेशी है, परन्तु शरीरधारी विशेष जीवोकी अपेक्षा करनेपर सकोच विस्तार द्वारा छोटे-बडे विस्तारो वाला है। कालकी अपेक्षा विस्तार करनेपर सामान्य रूपसे तो चित्प्रकाश तथा प्रदेशात्मक जीव-द्रव्य दोनो ही नित्य हैं, परन्तु शरीरधारी
SR No.009557
Book TitlePadartha Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1982
Total Pages277
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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